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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
व्याकुल हो मुनिराज के सामने बैठ गई। और कामजन्य विकारों को प्रकट करती हुई इस प्रकार कहने लगी-साधो ! यह तो आपका उत्तम रूप ? और यह अवस्था एवं सौंदर्य ? आपको इस अवस्था में किसने दीक्षा की शिक्षा दे दी? इस समय आप क्यों यह शरीर सुखानेवाला तप कर रहे हैं। इस समय तप करने से शरीर सुखाने के सिवाय दूसरा कोई फायदा नहीं हो सकता। इस समय तो आपको इंद्रिय-सम्बन्धी भोग भोगने चाहियें। जिस मनुष्य ने संसार में जन्म धारण कर भोगविलास नहीं किया, उसने कुछ भी नहीं किया ! मुने ! यदि आप मोक्ष को जाने के लिए तप ही करना चाहते हैं तो कृपाकर वृद्धावस्था में करना? इस समय आपको छोटी उम्र है। आपका मुख चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं मनोहर है। आपका रूप भी अधिक उत्तम है। इसलिए आपकी सेवा में यही मेरी सविनय प्रार्थना है कि आप किसी उत्तम रमणी के साथ उत्तमोत्तम भोग भोगें। और आनन्दपूर्वक किसी नगर में निवास करें॥३७-४३॥
रे बाले मा कृथाश्चत्तं विकारं रागदीपनं । भंक्तुं वांछसि सच्छीलं तत्पापं वेत्सि कि नहि ।। ४४ ।। अशीलतो महापापमशीलान्नरकेस्थितिः । अशीलाद्वेदना तीव्रा निःशीलात् संसृतिभ्रमः ।। ४५ ।। अशीलात्कुलनाशश्चापकीर्तिश्च विशीलनात् ।। अशीलात्शोकसंतापोऽशीलाद्राज्ञश्च साध्वसं ॥ ४६ ।। अतो जहि शुभे बाले निःशिलत्वं सुखाप्तये । शीलतो नाकिनाथत्वं कुरु शीले मतिं परां ।। ४७ ।। विहायान्यधवं बाले कुरु धर्म पतिव्रतं । संसारसातने दक्षं गुणलक्षं सुलक्षणम् ।। ४८ ।। चपलं मानसं बाले निरुध्य मधुसंगतं । स्थापस्व निजेकांते भवशीलादिसंगता ।। ४६ ॥ तदा सा स्मयसंदर्भा स्मेराक्षी वचनं जगौ। सच्चरित्र भदाकतं कथं वेत्सि महामने ।। ५० ॥
मुनिराज गुणसागर तो अवधि-ज्ञान के धारक थे। भला वे ऐसी निष्कृष्ट भद्रा सरीखी स्त्रियों की बातों में कब आनेवाले थे। जिस समय मुनिराज ने भद्रा के वचन सुने। शीघ्र ही उन्होंने भद्रा के मन के भाव को पहचान लिया। एवं वे उसे आसन्न भव्या समझ इस प्रकार उपदेश देने लगे
बाले! तू व्यर्थ राग के उत्पन्न करनेवाले कामजन्य विकारों को मत कर । क्या इस प्रकार के दृष्टविकारों से तू अपना परम पावन शीलवत नष्ट करना चाहती है ? क्या तू इस बात को नहीं जानती शील नष्ट करने से किन-किन पापों की उत्पत्ति होती है ? शील के न धारण करने से
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