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श्रणिक पुराणम्
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नापश्यत्तं नराधीशः स स्गप्रतिगृह्णाति न । विधाय विधिवद्योगी प्रत्यूहमगमत्तदा ।। ७१ ।। ततो द्विपक्षपर्यंत जग्राह प्रोषधं यतिः । पारणाय पुनर्योगी चचाल नृपमंदिरं ॥ ७२ ।। भूपदंताबलो राजस्तदा चोत्क्षिप्य बंधनं । चचाल व्याकुलीकुर्वन्स निशांतं नृपादिकं ॥ ७३ ॥ तथा समीक्ष्य योगी स कृतप्रत्यूहकोऽगमत् । वनं पुनर्द्विपक्षांतं जग्राहानशनं मुदा ॥ ७४ ॥ तृतीयपारणायां सोऽटतो हि भूपते मुंदा । राजधाम महादाहाद्वयाकुलैर्भूमिपादिभिः ॥ ७५ ॥ नादृश्यत तदा सोऽपि प्रत्यूहमकरोत्पुनः । क्षीणगात्रो विशिष्टात्मा त्वगस्थीभूतविग्रहः ॥ ७६ ।। गच्छंतं तं वनं वीक्ष्य प्राहुः केचिन्नरोत्तमाः ।। अहो दुष्टो महाभूपो दानप्रत्यूहकारकः ।। ७७ ।। स्वयं दत्तेन सद्दानमस्मै दातुं निषेधकृत् । अन्येषामिति च श्रुत्वा योगी कोपी बभूव सः ।। ७८ ॥
चित्त की घबराहट से वे मुनिराज को न देख सके। अन्य किसी ने मुनिराज को आहार दिया नहीं। इसलिए अपना प्रबल अंतराय जान मुनिराज तत्काल वन को लौट गये। एवं उन्होंने दो पक्ष का प्रोषध व्रत धारण कर लिया।
जब दो पक्ष समाप्त हो गये तो फिर मुनिराज आहार को आये। और उसी तरह समस्त गृहस्थों के घर घूमकर वे राजमन्दिर की ओर गये। ज्योंही मुनिराज राजमन्दिर के पास पहुँचे त्योंही राजा सुमिन के हाथी ने बन्धन तोड़ दिया एवं जन-समुदाय को व्याकुल करता हुआ वह नगर में उपद्रव करने लगा। इसलिए इस भयंकर दृश्य से अपना भोजनांतर समझ मुनिराज फिर वन को लौट गये। उस दिन भी उनको आहार न मिला। एवं वन में जाकर फिर उन्होंने दो पक्ष का प्रोषध व्रत धारण कर लिया।
प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने पर मुनिराज फिर भी दो पक्ष बाद नगर में आये। गृहस्थों के घरों में आहार न पाकर वे राजमन्दिर में आहारार्थ गये। इधर मुनिराज का तो राजमन्दिर में आगमन हुआ और उधर राजमन्दिर में बड़े जोर से आग लग गई। अग्निज्वाला देख राजा सुमित्र
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