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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
आदि घबरा गये। उस दिन भी राजा सुमित्र की दृष्टि मुनिराज पर न पड़ी। एवं मुनिराज भी आहार का अन्तराय समझ वन की ओर चल दिये।
__ मुनिराज वन की ओर जा रहे थे। उनकी देह आहार के न मिलने से सर्वथा क्षीण हो चुकी थी। ज्योंही गृहस्थों की दृष्टि मुनिराज पर पड़ी, मुनिराज का शरीर अति क्षीण देख उन्हें बहुत दुःख हुआ। वे खुले शब्दों में राजा सुमित्र की निन्दा करने लगे। देखो, यह राजा बड़ा दुष्ट है इस समय यह मुनिराज के आहार में पूरा-पूरा अन्तराय कर रहा है। न यह दुष्ट स्वयं आहार देता है और न किसी दूसरे को देने देता है ।।७१-७८॥
अहो ! अनेन दुष्टेन पूर्व संतापितो महान् । तथेदानीमहं राज्ञा ताप्ये वै लेपबाधनात् ॥ ७९ ॥ रोषोद्दीपितगात्रोऽसौ निदानमकरोत्तदा । कोपांधो पावसंलग्नपादो भूमौ समापतत् ।। ८० ॥ क्षीणदोषेण मृत्वा स निदानाद्वयंतरोऽजनि । व्यंतरत्वं क्व चारित्रं कार्यं हि न निदानकं ॥ ८१ ।। कुतश्चिन्मृतमावेद्य सुषेणं मुनिपुंगवं । चकार विविधं शोकं राजन्सुमुखभूपतिः ॥ ८२॥ तद्वियोगोत्थदुःखेन सुमुखस्तापसोऽभवत् । कुतपो दुस्सहं कृत्वा मृत्वा जज्ञे सुरस्ततः ॥ ८३ ॥ स्वायुरते ततश्च्युत्वा सुमित्रचरनिर्जरः । त्वमभूर्मागधाधीश स मिथ्यात्वः कुशासनात् ।। ८४ ॥ सुषेणचर देवो यो भविता चेलनोदरे । कुणिकाख्यः सुतो राजंस्तववैरिसमः सदा ।। ८५ ॥ कर्णांजलिपुटाभ्यां स संपीयेति वचोऽमृतम् । जातिस्मस्तदा जज्ञे ज्ञातपूर्वभवावलिः ।। ८६ ॥ अहो ज्ञान महोज्ञानमहो क्षांतिरहो क्षमा । अहो धीरत्वमुत्तंगं यतेः शंसां तदाकरोत् ॥ ८७ ॥
मनुष्यों को इस प्रकार बातचीत करते हुए सुन मुनि सुषेण ईर्यापथ-ध्यान से विचलित हो गये। आहार के न मिलने से क्रोध के कारण उनका शरीर लाल हो गया। वे विचारने लगे
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