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________________ २०६ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ततः कतिपय घस्रं द्विपक्षपारणा कृते । प्रति श्राद्धगृहं सोऽगात्पतिगृह्णाति कोऽपि न ॥ ६८ ॥ तदेर्यापथसदृष्टि रखिन्नः खिन्नगात्रकः । समाप मंदिरं तस्य कायस्थित्य महामना ।। ६६॥ तावत्सदसि भूपस्य वैरिभूपस्य दूतकः ।। आजगाम तदा भूपो व्याकुलोऽभून्नराधिपः ॥ ७० ॥ नरनाथ ! मैं इस काम के करने के लिए भी सर्वथा असमर्थ हूँ। दिगम्बर मुनियों को इस बात की पूर्णतया मनाई है। वे संकेतपूर्वक आहार नहीं ले सकते। आप निश्चय समझिए। जो भोजन मन, वचन, कर्म द्वारा स्वयं किया, एवं पर से कराया गया, वा पर को करते देख “अच्छा है" इत्यादि अनुमोदनपूर्वक होगा, दिगंबर मुनि उस भोजन को कदापि न करेंगे। किंतु उनके योग्य वही भोजन हो सकता है जो प्रासुक होगा। उनके उद्देश्य से न बना होगा। __ और विधिपूर्वक होगा। राजन् ! दिगम्बर मुनि अतिथि हुआ करते हैं। उनके आहार की कोई तिथि निश्चित नहीं रहती। मुनि निमन्त्रण-आमन्त्रणपूर्वक भी भोजन नहीं कर सकते। आप विश्वास रखिए जो मुनि निश्चित तिथि में निमन्त्रणपूर्वक आहार करनेवाले हैं। कृतकारित अनुमोदन का, कुछ भी विचार नहीं रखते। वे मुनि नहीं, जिह्वा के लोलुपी हैं। एवं वज्र मूर्ख हैं। हाँ, यदि मेरे योग्य जैन-शास्त्र से अविरुद्ध कोई काम हो तो मैं कर सकता हूँ। मुनिराज की दृष्टि सांसारिक कामों से ऐसी उपेक्षायुक्त देख राजा सुमित्र ने कुछ भी जवाब न दिया। उसने शीघ्र ही मुनिराज के चरणों को नमस्कार किया। एवं हताश हो चुपचाप राजमन्दिर की ओर चल दिया। यद्यपि राजा सुमित्र हताश हो राजमन्दिर में तो आ गये किन्तु उनका सुषेणविषयक मोह कम न हुआ। उनके मन में मोह का यह अंकुर खड़ा ही रहा कि किस रीति से मुनि सुषेण राजमन्दिर में आहार लें। इसलिए ज्योंही वह राजमन्दिर में आया। शीघ्र ही उसने यह समझ कि मुनि सुषेण को जब अन्यत्र आहार न मिलेगा तो मेरे यहाँ जरूर लेंगे। नगर में यह कड़ी आज्ञा कर दी कि सुषेण मुनि को कोई आहार न दें। और प्रतिदिन मुनि सुषेण की राह देखता रहा। ___कई दिन बाद मुनिराज सुषेण दो पक्ष की पारणा के लिए नगर में आहारार्थ आये। वे विधिपूर्वक इधर-उधर गृहस्थों के घर गये। किन्तु राजा की आज्ञा से किसी ने उन्हें आहार न दिया। अन्त में सम्यग्दर्शनादि गुणों से भूषित, विद्वान् आहार के न मिलने पर भी प्रसन्न चित्त, मुनि सुषेण जूरा प्रमाण भूमि को निरखते राजमन्दिर की ओर आहारार्थ चल दिये। इधर मुनिराज का तो राजमन्दिर में प्रवेश हुआ। और इधर राजा सुमित्र की सभा में राजा वैर का एक दूत आ पहुँचा। दूत-मुख से समाचार सुन राजा सुमिन अति व्याकुल हो गये ॥५६-७०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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