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________________ २०५ श्रेणिक पुराणम् राजन् ! मैं अपनी आत्मा को शांतिमय अवस्था में लाना चाहता हूँ। परभव में मेरी आत्मा शांतिस्वरूप का अनुभव करे। इसलिए मैंने यह तप करना प्रारम्भ कर दिया है। मुझे विश्वास है कि उत्तम तप की कृपा से मनुष्यों को स्वर्ग-मोक्ष सुख मिलते हैं। इसी की कृपा से राज्य, उत्तमोत्तम विभूतियाँ, उत्तम यश एवं उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। मुनिराज सुषेण के मुख से ये वचन सुन राजा सुमित्र ने और तो कुछ न कहा किंतु इतना निवेदन और भी किया __ मुनिनाथ ! यदि आप तप छोड़ना नहीं चाहते तो कृपा कर आप मेरे राजमंदिर में भोजनार्थ जरूर आवें और मेरे ऊपर कृपा करें। राजा के ये वचन भी मोह-परिपूर्ण जान मुनिवर सुषेण ने कहा-॥४१-५८॥ राजन्निति न युक्तं मे कृताहारग्रहादिकम् । यतीनां योगयुक्तानां तपः कृतविवर्जनम् ॥ ५६ ।। मनोवचनकायैश्च यत्कृतं कारितं पुनः । अनुमोदितमेवात्र हेयं हेयं च भोजनम् ।। ६० ॥ प्रासूकं यत्स्वयं जातं गेहिनां धाम्नि निश्चितं । अनुद्दिष्टं समादेयं जेमनं यतिभिः सदा ॥ ६१ ।। तिथि न विद्यते येषां येषामामंत्रणं न च । कथ्यतेऽतिथयस्तत्र निघस्र तिथिवजिते ॥ ६२ ।। (अशनं) कृतकारितसंमोदैन्यादं गृह्नति ये शठाः । यतयो नात्र चोच्यते रसनाहतमानसाः ॥ ६३ ॥ अत इत्थं न वक्तव्यं भूप ! भिक्षादिहेतवे । अन्यद्यद्रोचते तुभ्यं कथ्यमानं करोमि तत् ॥ ६४॥ नत्वा तं योगिनं भूपो जगाम खिन्नमानसः । तत्राहूय जनान्सर्वानादिशद्भूमिपः स्फुटं । ६५ ।। यदा सुषेणनामायं लेपार्थं मुनिसत्तमः । आगच्छति भवद्गेहे स्थापनीयो न सर्वकैः ॥ ६६ ॥ तदास्मन्मंदिरे धीमान् ग्रहीष्यति च भोजनं । इत्याज्ञां भूमिपश्चक्रे सर्वेषां स्वार्थसिद्धये ॥ ६७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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