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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
एक दिन सुमित और सुषेण किसी बावड़ी पर स्नानार्थ गये । वे दोनों कमल-पत्र से मुँह ढाँक बार-बार जल में डुबकी मारने लगे । सुमित बड़ा कौतूहली था, सुषेण को बार-बार डुबाता और खूब हँसी करता था। सुमिन के बर्ताव से यद्यपि सुषेण को दुःख होता था किंतु राजमित्र के भय से वह कुछ नहीं कहता था । उदासीन भाव से उसके सब अनर्थ सहता था ।
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कदाचित् राजमित्र का शरीरांत हो जाने से सुमित्र राजा बन गया। सुमित्र को राजा जान मंत्री पुत्र सुषेण को अति चिंता हो गई। वह विचारने लगा - - सुमित्र का स्वभाव क्रूर है वह दुष्ट मुझे बालकपन में बड़े कष्ट देता था । अब तो यह राजा हो गया, मुझे अब यह और भी अधिक कष्ट देगा । इसलिए अब सबसे अच्छा यही होगा कि इसके राज्य में न रहना । तथा ऐसा विचार कर सुषेण ने शीघ्र ही कुटुम्ब से मोह तोड़ दिया । एवं वन में जाकर जैन दिगम्बर दीक्षा धारण कर वे उग्र तप करने लगे ।
जब से सुषेण मुनिराज वन में गये तब से वे राजमंदिर में न आये। राजा सुमित्र भी राज्य पाकर आनंद से भोग भोगने लगे । उनको भी सुषेण की कुछ याद न आई। कदाचित् राजा सुमित्र एकान्त स्थान में बैठे थे । उन्हें अचानक ही सुषेण की याद आ गई । सुषेण का स्मरण होते ही उन्होंने शीघ्र ही किसी पार्श्वचर ( सिपाही) से पूछा- कहो भाई ! आजकल मेरे परम पवित्र मित्र सुषेण राजमंदिर में नहीं आते, वे कहाँ रहते हैं ? और क्यों नहीं आते ? महाराज के भुख से सुषेण के बाबत ये वचन सुन पार्श्वचर ने कहा
कृपानाथ ! सुषेण तो दिगम्बर दीक्षा धारण कर मुनि हो गये । अब उन्होंने समस्त संसार मोह छोड़ दिया। वे आजकल वन में रहते हैं । इसलिए आपके मंदिर में नहीं आते। पार्श्वचर के मुख से अपने प्रिय मित्र सुषेण का यह समाचार सुन राजा सुमित्र बड़े दुःखी हो गये । उन्हें की अब बड़ी याद आने लगी । कदाचित् राजा सुमित्र को यह पता लगा कि मुनिराज सुषेण शूरपुर के उद्यान में आ विराजे हैं। उन्हें बड़ी खुशी हुई। मुनिराज के आगमन श्रवण से राजा सुमित्र का चित्तरूपी कमल विकसित हो गया। उन्होंने मुनिराज के दर्शनार्थ शीघ्र ही नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया । एवं स्वयं भी एक उन्नत गज पर सवार होकर बड़े ठाट-बाट से मुनि-दर्शन के लिए गये | ज्योंही राजा सुमित्र का हाथी वन में पहुँचा, वे गज से तुरन्त उतर पड़े। मुनिराज सुषेण के पास जाकर उनको तीन प्रदक्षिणा दी । अति विनय से नमस्कार किया एवं प्रबल मोह के उदय से सुषेण की मुनि-मुद्रा की ओर कुछ न विचार कर वे यह कहने लगे
प्रिय मित्र ! मेरा राज्य विशाल राज्य है । शुभ पुण्योदय से मुझे यह मिल गया है। ऐसे विशाल राज्य की कुछ भी परवा न कर मेरे बिना पूछे आप मुनि बन गये यह ठीक नहीं किया । आपको आधा राज्य ले भोग भोगने थे । अब भी आप इस पद का परित्याग कर दें । भला संसार में ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो शुभ एवं प्रत्यक्ष सुख देनेवाले राज्य को छोड़ दुर्धर तपाचरण करेगा। राजा सुमित्र के मुख से ये मोहपूर्ण वचन सुन मुनिराज सुषेण ने कहा
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