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________________ २६४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् रत्नश्री चित्रनक्षत्र पवित्र गगनच्छवि । सिंहासनं समासीन उदयाद्रिं तमोहरः ।। ६६ ।। पयः पयोधि संरंगत्तरलोत्तुंग भंगुरैः । तरंगैरिव संवीज्यमानः खलु प्रकीर्णकः ॥ ७० ॥ संसदि श्रेणिको यावदास्ते छत्रपवित्रतः । तावत्प्रसूनलावी चा जगामद्वास्थवेदिनः ।। ७१ ।। तं प्रणम्य सभासीनं षट्कालप्रभवैर्वरैः । प्राभूतैः फलपुष्पैश्च नवीनैश्च व्यजिज्ञपत् ।। ७२॥ निःशेषपुण्य संस्थान महीभृत्यूजिताहिक । करुणा क्रांतचेतस्क शक्रचक्र विभूतिभाक् ॥ ७३ ॥ देव ! श्रेणिक ! भूपेंद्र ! राजंस्त्वद्वषनोदितः । समाट वर्द्धमानेशो भगवान्विपुलाचले ।। ७४ ।। तत्प्रभावाने जाता वनश्री: सफलाऽखिला । सपुष्पा मदनोद्दीप्ता यौवनाद्योषिता यथा ।। ७५ ।। सरांसि रसपूर्णानि सपदमानि वराणि च । निर्मलानि गभीराणि विद्वच्चेतांसीवा बभुः ।। ७६ ।। सवंशा तिलकोद्दीप्ता कुलीना मदनाकुला । सुवर्णा मन्मथारूढा वनश्री स्त्रीव संबभौ ।। ७७ ।। भृङ्गझंकार वाचाला पुष्पहास्या फलस्तनी। रक्तकामांगा वनश्रीोषितेवच ।। ७८ ॥ स्वरूप कदाचित् अनेक राजा और सामंतों से सेवित भले प्रकार बन्दीजनों से स्तुत महाराज श्रेणिक छत्र और चंचल चमरों से शोभित अत्युन्नत सिंहासन पर बैठते ही जाते थे कि अचानक ही सभा में वनमाली आया। उसने विनय से महाराज को नमस्कार किया एवं षटकाल के फल और पुष्प महाराज को भेंट कर वह इस प्रकार निवेदन करने लगा। समस्त पुण्यों के भंडार ! बड़े-बड़े राजाओं से पूजित ! दयामय चित्त के धारक ! चक्र और इन्द्र की विभूति से शोधित ! भो देव ! विपुलाचल पर्वत पर धर्म के स्वामी भगवान महावीर का समवसरण आया है। भगवान के समवसरण के प्रसाद से वनश्री साक्षात् स्त्री बन गई है क्योंकि स्त्री जैसी पुत्ररूपी फलयुक्त होती है वनश्री भी स्वादु और मनोहर फलयुक्त हो गई है। स्त्री जैसी सपुष्पा रजोधर्म युक्त होती है । वनश्री भी सपुष्पा हरे-पीले अनेक फूलों से सज्जित हो जाती है। स्त्री जैसी यौवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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