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श्रेणिक पुराणम्
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अवस्था में मदनोदीप्ता काम से दीप्त हो जाती है। वनश्री भी मदनोदीप्ता मदन वृक्ष से शोभित हो जाती है। भगवान के समवसरण की कृपा से तालाबों ने सज्जनों के चित्त की तुलना की है क्योंकि सज्जनों का चित्त जैसा रसपूर्ण करुणा आदि रसों से व्याप्त रहता है तालाब भी उसी प्रकार रसपूर्ण जल से भरे हुए हैं। सज्जनों का चित्त जैसा सपद्मा-अष्टदल कमलाकार होता है तालाब भी सपग मनोहर कमलों से शोभित हैं। सज्जन चित्त जैसा वर उत्तम है। तालाब भी वर-उत्तम है। सज्जन चित्त जैसा निर्मल होता है तालाब भी उसी प्रकार निर्मल है। सज्जनों के चित्त जैसे गम्भीर होते हैं तालाब भी इस समय गम्भीर हैं इस प्रकार से भी वनश्री ने स्त्री की तुलना की है। क्योंकि स्त्री जैसी सवंशा-कुलिना होती है वनश्री भी सवंशा बाँसों से शोभित है। स्त्री जैसी तिलकोदीप्ता तिलक से शोभित रहती है वनश्री भी तिलकोदीप्ता-तिलक वृक्ष से शोभित है। स्त्री जैसी मदनाकुला-काम से व्याकुल रहती है वनश्री भी मदनाकुला-मदन वृक्षों से व्याप्त है। स्त्री जैसी सुवर्णा मनोहर वर्ण वाली होती है वनश्री भी सुवर्णा हरे-पीले वर्णों से युक्त है। स्त्री के सर्वांग में जैसा मन्मथ काम जाज्वल्यमान रहता है वनश्री भी मन्मथ जाति के वृक्षों से जहाँ-तहाँ व्याप्त है। पद्मिनी स्त्री जैसी भौरों की जंघारों से युक्त रहती हैं वनश्री पुष्परूपी हास्ययुक्त है। स्त्री जैसी स्तन युक्त होती है वनश्री भी ठीक उसी प्रकार फलरूपी स्तनों से शोभित है॥६८-७८॥
नकुलाः सकला नागैररम्यंते प्रभावतः । मार्जारशिशवो राजन् मूषकैर्वैरदूषितैः ॥ ७६ ।। सिंहशावं करेणुश्च स्तन्यं सुतस्यामोदतः । पाययति तथा धेनु द्वीपिशावं समीपगं ॥ ८० ॥ तत्प्रभावाद्विना वैरा रभवन् जंतवोऽखिलाः । नटंति नागतुंडिकादर्दुरा नागमूनि च ।। ८१ ।। देवदेव नरेशाद्यैः पर्युपासित शासन । समाट सन्मतिः केन तत्प्रभावो हि वर्ण्यते ।। ८२ ।। आनंद प्रमदालीढां गिरं श्रुत्वा वनेशिनः । नरेशो हर्षरोमां च चर्म देही बभूव च ।। ८३ ।। उत्थाय सहसा शूर गत्वा सप्तपदानि तां । अनमत्कुकुभां शुभ्रादभ्रकीत्तिः सुमूत्तिमान् ।। ८४ ।। शारीरजं तदा तस्मै भूषणं वसनं धनं । ददौ नृपो धृतानंद इंदोरिव सारित्पतिः ।। ८५ ।।
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