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________________ १५८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् ज्येष्टेति वचनं ब्रूते हारो विस्मारितो मया । संविकल्प्येत्युपायं सा व्याघुट्य स्वगृहं गता ॥१०२॥ कुमार की यह युक्ति देख कन्या अति प्रसन्न हुई। किसी समय अवसर पाकर उन तीनों कन्याओं ने सुरंग से जाने का पूरा-पूरा इरादा कर लिया। और वे सुरंग के पास आगई। किंतुज्यों ही वे तीनों सुरंग में घुसी सुरंग में अँधेरा देख ज्येष्ठा और चंदना तो एकदम घबरा गई। उन्होंने सोचा हमें इस मार्ग से जाना ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम तो इसमें गाढ़ अंधकार है, इसलिए जाना कठिन है। द्वितीय, यदि हमारे पिता सुनेंगे तो हम पर नाराज होंगे। इसलिए ज्येष्ठा तो अपना हार का बहाना कर वहाँ से लौट आई। और चंदना अपनी मुद्रिका का बहाना बनाकर लौटी। अकेली बेचारी चेलना रह गई उसको कुमार ने शीघ्र ही खींच लिया। और उसे रथ में बिठाकर तत्काल राजगृह नगर की ओर प्रयाण कर दिया ।।६८-१०२।। चेलिन्या सह सर्वेऽपि निर्जग्मुस्तत्रसोद्यमाः । ततस्तां रथ संरूढां विधायागुः पुरं निजम् ॥१०३।। मातृ पित्रादिसंमोहं दधती निजमानसे । उद्वीरिताऽभयेनैव चचाल रथसंगता ॥१०४॥ ततः सत्वरमासाद्य स्वदेशं मगधंशुभम् । सोत्कंठिता बभूवुस्ते विमुक्तभयविग्रहाः ॥१०॥ आगच्छंती समाकर्ण्य श्रेणिकोर्द्धपथं मुदा । आजगाम महाभूत्या सन्मुखं सुखसंगतः ।।१०६।। विलोक्य तनुजं रम्यं पप्रच्छ पूर्ववृत्तकम् । आलिंगनादिकं प्राप्य तुतोष स्वतुजा समं ॥१०७।। प्रेक्ष्य चंद्राननां तन्वों चलनी चेलसंगताम् । मृगाक्षी रतिमापन्नः कदर्यश्च महानिधि ॥१०८॥ अवीविशत्पुरं राजा जिनदासस्य सद्गृहे । श्रेष्ठिनो धर्मरक्तस्य तां मुमोच शुभाप्तये ॥१०६।। सुमुहूर्ते शुभेलग्ने शुभे योगे सुवासरे । क्षणेन तां महीपालोऽवीवरन्मृगलोचनां ॥११०॥ ततः पटहनादेन कुर्वन्भवनमाकुलम् ।। तया जगाम सद्धाम रत्या वा मीनकेतनः ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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