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________________ श्रेणिक पुराणम् १५७ कथं संप्राप्यतेऽस्माभिः सार्थनाथवरोत्तमः । न ज्ञायते भविष्णुः को भर्तास्माकं विधर्वशात् ।। ६४ ॥ यदि नेष्यसि नः शीघ्र त्वं स संप्राप्यते । खलु नान्यथा मागधः कुत्र वयं कुत्र विदेशगाः ॥ ६५ ॥ तथाकूरु यथा भावी वरोऽस्माकं महामते । अन्यथा न सुखं निद्रा दुःखंतद्विरहात्पुनः ।। १६॥ ततोऽन्योन्यसमालाएं विधाय विधिकोविदः । आ राजभवनं रम्यां सुरंगां तामकारयत् ।। ६७ ॥ प्रिय वणिक सरदार ! ऐसे उत्तम वर की हमें किस रीति से प्राप्ति हो? न जाने हमारे भाग्य से इस जन्म में हमारा कौन वर होगा? श्रेष्ठिवर्य ! यदि किसी रीति से आप वहाँ हमें ले चलें तब तो मगधेश हमारे पति हो सकते हैं। क्योंकि कहाँ तो महाराज श्रेणिक और कहाँ हम ? कृपाकर आप कोई ऐसी युक्ति सोचिये, जिसमें मगधेश हमारे स्वामी हों। याद रखिये जब तक महाराज श्रेणिक हमें न मिलेंगे तब तक न तो हम संसार में सुखी रह सकेंगी। और न हमें निद्रा ही आवेगी, विशेष कहाँ तक कहा जाय महाराज श्रेणिक के वियोग में अब हमें संसार दुःखमय ही प्रतीत होने लगेगा। कन्याओं के ऐसे लालसा-भरे वचन सुन कुमार अति प्रसन्न हुए। अपने कार्य की सिद्धि जान मारे हर्ष के उनका शरीर रोमांचित हो गया। कन्याओं को आश्वासन दे शीघ्र ही उन्हें वहाँ से चंपत किया। और अपने महल से राजमंदिर तक कुमार ने शीघ्र ही एक सुरंग तैयार करने की आज्ञा दे दी। कुछ दिन बाद सुरंग तैयार हो गई। कुमार ने सुरंग के भीतर अपने महल से राजमहल तक एक रस्सी बंधवा दी। और गुप्त रीति से कन्याओं के पास भी समाचार भेज दिया॥६३-६७॥ प्राकारां तां परां तस्यां रज्जुबंधं चकार च । आगता रज्जुबंधेन निर्गमाय च कन्यकाः ॥ ८ ॥ ज्येष्टा च चंदना वीक्ष्य तां सुरंगां सुभीषणां । अग्रस्थां तमसा व्याप्तामुपायं हृद्यचितयत् ।। ६६ ।। दुर्मार्गे किमु गम्येत भविता जनहास्यता । पितृकोपस्तथा • भावी न गंतव्यं मया स्फुटम् ॥१०॥ चंदनेत्यभणद्वाक्यं मुद्रिका मम विस्मृता । आनयामि द्रुतं तस्मादिति कृत्वा गृहं गता ।।१०१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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