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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
जिनपालमुनिं वीक्ष्य पूजयित्वा तदंह्निकं । परीत्य तौ प्रणम्याशुतिष्ठतुः सुकृतांजली ।। १८२ ॥ तदा पप्रच्छ भूभीशो भो ज्ञानिन्मोक्षमाग्रणीः । समस्तव्यस्तशीलेश विपक्षेतरशाम्यक ॥। १८३ ।।
यतीनां योगनिष्ठानां युक्तं किं कस्यचित्प्रभो । अभयोत्सर्जनं कस्य नाशचिंतनमित्यपि ॥ १८४ ॥ मौनेनास्युस्तदाते च न भाषते हिताऽहिते । वादिताश्च तदा वादीद्वसुकांता सुचंद्रिका ॥१८५॥ राजन् भूपालपुण्येन दिव्यनादो विनिर्गतः । स्वयं नैष मुनेर्दोषोऽभयनाशादिसंभवः ॥ १८६॥ चित्तस्थं द्वापरं तौ च विनाश्य प्रणम्य प्रापतुस्तूर्णं पुरां पूर्णं तिष्ठतुस्तौ सुखेनैव स्वदेशे
वृषवर्द्धकौ । मनोरथाम् ।।१८७।। सुदशागतौ ।
वयं विशिष्टदेशेषु भ्रमंतोऽत्र समागताः ।। १८८ ।।
तवालयं परिप्राप्ता लेपार्थं श्रेणिकाधिप । वाग्गुप्त्यपापतो नैव वयं त्वन्मंदिरे स्थिताः ।। १८६ ।।
राजा प्रजापाल को भी चंडप्रद्योतन के चले जाने का पता लगा । उसने शीघ्र ही कई मंत्री जो कि पर के अभिप्राय जानने में अतिशय चतुर थे शीघ्र ही राजा चंडप्रद्योतन के पास भेजे और सारा हाल जानना चाहा। राजा की आज्ञानुसार समस्त मंत्री शीघ्र ही कौशांबी गये । राजा चंप्रद्योतन की सभा में पहुँच उन्होंने विनय से राजा को नमस्कार किया और जो कुछ राजा प्रजापाल का संदेशा था, सब कह सुनाया। मंत्रियों के मुख से राजा प्रजापाल का यह संदेशा सुन राजा चंडप्रद्योतन ने कहा
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मंत्रियो ! राजा प्रजापाल अतिशय धर्मात्मा है । धर्म उसे अपने प्राणों से भी प्यारा है । मैंने राजा प्रजापाल को जैन समझ युद्ध का संकल्प छोड़ दिया । जो पापी पुरुष जैनियों के प्राणों को दुःखाते हैं, उनके साथ युद्ध करते हैं । वे शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होते हैं । और वे संसार में नराधम कहलाते हैं ।
राजा चंडप्रद्योतन से यह समाचार सुन मंत्री तत्काल भूमितिलकपुर को लौट पड़े। चंडप्रद्योतन का सारा समाचार राजा प्रजापाल को कह सुनाया और उनकी अनेक प्रकार से प्रशंसा करने लगे । ज्योंही राजा प्रजापाल ने यह बात सुनी उन्हें अति प्रसन्नता हुई। चंडप्रद्योतन को
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