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श्रेणिक पुराणम्
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अपने समानधर्मी समझ राजा प्रजापाल ने शीघ्र ही कन्या वसुकांता का राजा चंडप्रद्योतन के साथ विवाह कर दिया। एवं हाथी-घोड़ा अति उत्तमोत्तम पदार्थ देकर राजा चंडप्रद्योतन के साथ बहुत-कुछ हित जताया।
अब कन्या वसुकांता के साथ राजा चंडप्रद्योतन का विवाह हो गया तो उनको बड़ा संतोष हो गया। वे बड़े आनन्द से रहने लगे। और दोनों दंपती भली प्रकार सांसारिक सुख का अनुभव करने लगे।
कदाचित् राजा चंडप्रद्योतन रानी वसुकांता के साथ एकांत में बैठे थे। अचानक ही उन्हें भूमितिलकपुर के युद्ध का स्मरण हो गया। वे रानी वसुकांता से कहने लगे
प्रिये ! मैं अतिशय प्रतापी था। चतुरंग सेना से मंडित था, अपने प्रताप से मैंने समस्त भूपतियों का मान गलित कर दिया था। मेने तेरे पिता को इतना बलवान नहीं जाना था। हाय तेरे पिता के साथ युद्ध कर मैंने बड़ा अनर्थ किया। रानी वसुकांता ने जब ये वचन सुने तो वह कहने लगी
नाथ! आपके बराबर मेरे पिता बलवान न थे। किंतु मुनिवर जिनपाल ने उन्हें अभयदान दे दिया था इसलिए वे आपसे पराजित न हो सके। रानी वसुकांता के ये वचन सुने तो महाराज अचम्भे में पड़ गये वे कहने लगे
चंद्रवदने ! तुम यह क्या कह रही हो ? परम योगी राग-द्वेष से रहित होते हैं। वे कदापि ऐसा काम नहीं कर सकते। यदि मुनिवर जिनपाल ने राजा प्रजापाल को ऐसा अभयदान दिया हो तो बड़ा अनर्थ किया। चलो, अब हम शीघ्र उन्हीं मुनिराज के पास चलें और उन्हीं से सब समाचार पूर्छ।
राजा चंडप्रद्योतन की आज्ञानुसार रानी वसुकांता चलने के लिए तैयार हो गई, वे दोनों दंपती बड़े आनंद से मुनि-वंदनार्थ गये। जिस समय वे दोनों दंपती वन में पहुँचे। और ज्योंही उन्होंने मुझे देखा बड़ी भक्ति से नमस्कार किया। तीन प्रदक्षिणा दी। एवं राजा चंडप्रद्योतन ने बड़ी विनय से यह कहा
समस्त विद्वानों के पारगामी, भव्यों को मोक्ष-सुख प्रदान करनेवाले, अतिशय कठिन किंतु परमोत्तम व्रत के धारक, शत्रु-भित्रों को समान समझनेवाले, प्रभो! क्या यह आपको योग्य था कि एक को अभयदान और दूसरे का अनिष्ट चिंतन करना? कृपानाथ ! प्रथम तो मुनियों के लिए ऐसा कोई अवसर नहीं आता। यदि किसी प्रकार का आकर उपस्थित भी हो जाय तो आप सरीखे वीतराग मुनिगण उस समय ध्यान का अवलंबन कर लेते हैं। भली-बुरी कैसी भी सम्मति नहीं देते। राजा चंडप्रद्योतन के ऐसे वचन सुन-हे राजन् श्रेणिक ! मैंने तो कुछ जवाब नहीं दिया। किंतु रानी वसुकांता कहने लगी
नाथ ! मेरे पिता के शभोदय से उस समय किसी वन-रक्षिका देवी ने वह आशीर्वाद दिया था। मुनिराज ने कुछ भी नहीं कहा था । आप इस अंश में मुनिराज का जरा भी दोष न समझें।
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