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षष्ठः सर्गः
बोधिबोधित सत्तत्वं सत्वानुग्राहकं स्तुवे । अंतिम तीर्थकर्तारं राज्ञे तत्वार्थदायकम् ।। १ ।। अथ संप्राप्तराज्योऽसौ प्रतिपक्षविवर्जितः ।
महद्भिर्महितां महीं पाति षाड्गुण्य मंडितः ॥ २ ॥ उक्तंच-संधिश्च विग्रहो यानमासनं संभ्रमस्तथा ।
द्वेधीभावश्च संप्रोक्ताः षड्गुणाः क्षितिपाश्रिताः ॥ तस्मिन्राज्यं शुभप्राज्यं पातितानीतयोऽभवन् । भयं नानारिसंभूतं नो बभूव खलु भृशं ॥ ३ ॥ क्षणिकोद्दीपनं तत्त्वं दधच्चित्ते च दुर्दमं । सर्वज्ञं सुगतं देवं चतुरार्यप्ररूपकम् ॥ ४ ॥
केवल ज्ञान की कृपा से समस्त जीवों को यथार्थ उपदेश देनेवाले, परम दयालु, भली प्रकार पदार्थों के स्वरूप को प्रकाश करनेवाले, अंतिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार। अनन्तर समस्त शत्रुओं से रहित, प्रजा के प्रेमपात्र, अनेक उत्तमोत्तम गुणों से मंडित, वे महाराज श्रेणिक अच्छी प्रकार नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। उनके राज्य करते समय न तो राज्य में किसी प्रकार की अनीति थी। और न किसी प्रकार का भय ही था। किन्त प्रजा अच्छी तरह सुखानुभव करती थी। पहले महाराज बौद्धमत के सच्चे भक्त हो चके थे। इसलिए वे उस समय भी बुद्धदेव का बराबर ध्यान करते रहते थे। और बुद्धदेव की कृपा से ही अपने को राजा हुआ समझते थे॥१-५॥
अथैकदा समायातः खेचरो द्योतयन् दिशं । समितौ भूभुजं नत्वा वचोऽवादीन्नभस्तलात् ॥ ५ ॥
किसी समय महाराज राजसिंहासन पर विराजमान होकर अपना राज्य-कार्य कर रहे थे। अचानक ही एक विद्याधर जो कि अपने तेज से समस्त भूमण्डल को प्रकाशमान करता था सभा में आया और महाराज श्रेणिक को विनयपूर्वक नमस्कार कर यह कहने लगा ॥१॥
शृणु देवेहरूप्याद्रौ दक्षिणश्रेणि संस्थिता । केरला नगरी तत्र मृगांकोऽस्ति खगाधिपः ॥ ६ ॥
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