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श्रेणिक पुराणम्
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से भिन्न तत्त्व मिथ्या तत्त्व हैं । यशोधर मुनिराज अपने व्रत में सर्वथा दृढ़ हैं। साधुओं के वास्तविक लक्षण मुनि यशोधर में ही संघटित होते हैं। एवं महाराज की विचार-सीमा अब और भी चढ गई। वे मन-ही-मन यह भी कहने लगे-जो साधु भोले जीवों के वंचक हैं, विषय-लंपटी हैं। हाथी, घोड़ा, माल, खजाना, स्त्री आदि परिग्रहों के धारक हैं। वास्तविक ज्ञान-ध्यान से बहिर्भत हैं । वे नाम के हो साधु हैं, पाखंडी साधु कदापि गुरु नहीं बन सकते। वे संसार-समुद्र में डूबनेवाले हैं। इस प्रकार विचार करते-करते महाराज श्रेणिक को अपनी आत्मा का कुछ वास्तविक ज्ञान हो गया उन्होंने शीघ्र ही श्रावक के व्रत धारण कर लिये। रानी चेलना सहित महाराज श्रेणिक ने विनय से मुनिराज के चरणों को नमस्कार किया एवं मुनिराज के गुणों में संलग्न चित्त, उनकी बारम्बार स्तुति करते हुए महाराज श्रेणिक और रानी चेलना आनन्दपूर्वक अपने राजमन्दिर की ओर चल दिये। महाराज ने जिन धर्म की परम भक्त रानी चेलना के साथ बड़े ठाट-बाट से राजमन्दिर में प्रवेश किया। और अपनी कीर्ति से समस्त दिशाएँ सफेद करनेवाले महाराज भली प्रकार जिन भगवान की पूजा, आराधना एवं उनके गुणों का स्तवन करते हुए राजमन्दिर में रहने लगे।
कदाचित् बौद्ध साधुओं को इस बात का पता लगा कि महाराज श्रेणिक ने किसी जैन मुनि के उपदेश से जैन धर्म धारण कर लिया है। उनके परिणाम बौद्ध धर्म से सर्वथा विमुख हो गये हैं । वे शीघ्र ही महाराज श्रेणिक के पास आये । और ऐसा उपदेश देने लगे
प्रिय मगधेश! यह बात सुनने में आई है कि आपने बौद्ध धर्म का सर्वथा परित्याग कर दिया है। आप जैन धर्म के परम भक्त हो गये हैं ? यदि यह बात सत्य है तो आपने बड़ा अनर्थ एवं अविचारित काम कर दिया है। हमें सन्देह होता है कि परम पवित्र, जीवों को यथार्थ सुख देनेवाले, श्री बुद्धदेव के धर्म और यथार्थ तत्त्वों को छोड़कर, निस्सार, जीवों का अहित कारक जैन धर्म और उसके तत्त्वों पर आपने कैसे विश्वास कर लिया ? प्रजानाथ ! स्त्रियों की अपेक्षा बुद्धिबल मनुष्य का अधिक होता है। इसलिए सर्वथा संसार में यही बात देखने में आती है कि यदि स्त्री किसी विपरीत मार्ग पर चलनेवाली हो तो चतुर पुरुष अपने बुद्धिबल से उसे सन्मार्ग पर ले आते हैं। किन्तु यह बात कहीं नहीं देखी कि स्त्री के कहने से वे विपरीत मार्गगामी हो जायें आप विश्वास रखिए जो मनुष्य स्त्री की बातों में आकर अपने समीचीन मार्ग का त्याग कर देते हैं। और विपरीत मार्ग को ही सम्यग् मार्ग समझने लग जाते हैं। वे मनुष्य विद्वानों की दृष्टि में चतुर नहीं समझे जाते।
स्त्री के कहने में चलनेवाला मनुष्य आबाल गोपाल निंदा-भाजन बन जाता है। राजन् ! आप बुद्धिमान हैं प्रत्येक कार्य विचारपूर्वक करते हैं। तथापि न मालूम आपने कैसे स्त्री की बातों में फंसकर अपने पवित्र धर्म का परित्याग कर दिया। हमें इस बात की कोई परवा नहीं कि आप जैन बने अथवा बौद्ध रहें। किन्तु यहाँ यह कहना हमें आवश्यकीय होगा कि आप जैन मुनियों की अपेक्षा बौद्ध साधुओं को अल्पज्ञानी समझते हैं, तो आप कृपया फिर से इस बात का निर्णय कर लें। पीछे आप बौद्ध धर्म का परित्याग कर दें। मगधाधिप! हमें पूर्ण विश्वास है कि अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के भंडार, परम पवित्र, बौद्ध साधुओं के सामने जैन धर्म सेवी मुनि कोई चीज नहीं। और न बौद्ध धर्म के सामने जैन धर्म ही कोई चीज है। याद रखिए, यदि आप यों ही बिना
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