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श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
परीक्षा किये जैन धर्म धारण कर लेंगे। और बौद्ध धर्म छोड़ देंगे तो आपको अभी नहीं तो पश्चात जरूर पछताना होगा। प्रबल पवन के सामने अचल भी वृक्ष कहाँ तक चलायमान नहीं होता। कुतर्क से मनुष्य के सद्विचार कहाँ तक किनारा नहीं कर जाते ? ज्योंही महाराज ने बौद्धों का लम्बा-चौड़ा उपदेश सुना-पानी के अभाव से जैसे अभिनव वृक्ष कुम्हला जाता है' महाराज का जैन धर्मरूपी पौधा कुम्हला गया। अब उनका चित्त फिर डांवाडोल हो गया। उनके मन में फिर से जैन धर्म एवं जैन मुनियों की परीक्षा का विचार सामने मंडराने लगा॥८८-१०३।।
परीक्षायै ततो भूपो मध्येगेहं कदाचन । चर्मास्थिनिवहं क्षिप्त्वा यत्नेनादृश्यतां व्यधात् ॥१०४।। ततोऽभाणीत्स दयितां राज्यहं जैनमानसः । जातोऽस्मि मद्गृहे जैना गुरवो भावसिद्धितः ॥१०५।। भिक्षार्थं स्थापनीयास्ते धाम्नि चास्मिन्निरंजने । इत्युक्तं कोविदा मेने भूपाभिप्रायमंजसा ।।१०६।। अन्यदा मुनयस्तत्र समागूराजमंदिरं । त्रयो निघस संसिद्धय कृतेर्यापथवीक्षणाः ।।१०७॥ मुनीन्वीक्ष्या वदद्भूपो राज्ञि स्थापय भक्तितः । उदीर्येति सुनम्रांगा वुभौ सन्मुखमीयतुः ॥१०८।। तदा बभाण सा देवी वचनं मुनिपुंगवाः । त्रिगुप्तिगुप्तास्तिष्ठंतु लेपार्थं राजमंदिरे ॥१०॥ तदा मुनीश्वराः सर्वे दर्शयित्वांगुलिद्विकं । व्याघुट्य विपिने तस्थुर्मत्वा भूपतिभावकं ॥११०॥ गुणसागरनामानमागतं
भोजनकृते । वीक्ष्यांगुलिन्रिकं राज्ञी दर्शयामास सनृपा ॥१११॥ प्रतिपद्य तथा योगी तस्थौ राजनमस्कृतः । प्रतिगृहीत एवं च प्रक्षालितपदाम्बुजः ।।११२।। लेपकृते गृहं प्राप्य मुनी राज्ञा समं मुदा । मत्वाऽवधि बलात्प्राह तद्गृहस्थास्थिचर्मणी ।।११३।।
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