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श्रेणिक पुराणम्
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भूप ! नास्मिन्गृहे शुद्धि रस्ति स्थातुन योग्यता। इति संलप्य योगी स प्रत्यूहमकरोत्तदा ॥११४॥
कदाचित् महाराज ने जैन मुनियों की परीक्षार्थ राजमंदिर में गुप्त रीति से एक गहरा गड्ढा खुदवाया। उसमें कुछ हड्डी-चर्म आदि अपवित्र पदार्थ मँगाकर रखवा दिये। और रानी से आकर कहा
कांते ! अब मैं जैन धर्म का परिपूर्ण भक्त हो गया हूँ। मेरे समस्त विचार बौद्ध धर्म से सर्वथा हट गये हैं।
कदाचित् भाग्यवश यदि कोई जैन मुनि राजमंदिर से आहारार्थ आवे तो तू इस पवित्र मंदिर में आहार देना। उनकी भक्ति, सेवा, सम्मान भी खूब करना। रानी चेलना बड़ी पंडिता थी। महाराज की यह आकस्मिक वचन-भंगी सुन उसे शीघ्र ही इस बात का बोध हो गया कि महाराज ने जैन मुनियों की परीक्षार्थ अवश्य ही कुछ ढोंग रचा है। और महाराज के परिणाम बौद्ध धर्म की ओर फिर झुके हुए प्रतीत होते हैं।
कुछ दिन के पश्चात् भली प्रकार ईर्या समिति के परिपालक, परम पवित्र तीन मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आये। ज्योंही महाराज की दृष्टि मुनियों पर पड़ी वे शीघ्र ही रानी के पास गये। और कहने लगे-प्रिये ! मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आ रहे हैं। जल्दी तैयार हो उनका पडगाहन करके स्वयं भी मुनियों के सामने आकर खड़े हो गये।
मुनिराज यथास्थान आकर ठहर गये। ज्योंही रानी ने मुनिराजों को देखा विनम्र मस्तक हो उन्हें नमस्कार किया। तथा महाराज द्वारा की हुई परीक्षा से जैन धर्म पर कुछ आघात न पहुँचे यह विचार रानी ने शीघ्र ही विनय से कहा
हे मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्ति पालक, परमोत्तम मुनिराजो! आप आहारार्थ राजमंदिर में तिष्ठे। उनमें से कोई भी मुनि त्रिगुप्ति का पालक नहीं था। सब दो-दो गुप्तियों के पालक थे। इसलिए ज्योंही रानी के वचन सुने उन्होंने शीघ्र ही अपनी दो-दो अँगुलियाँ उठा दीं। तथा दो अँगुलियों के उठाने से रानी को यह बतला दिया कि हे रानी! हम दो-दो गुप्तियों के ही पालक हैं, शीघ्र वन की ओर चल दिये।
उसी समय कोई गुणसागर नाम के मुनिराज भी पुर में आहारार्थ आये। मुनि गुणसागर को अवधिज्ञान के बल से राजा का भीतरी विचार विदित हो गया था। इसलिए वे सीधे राजमंदिर में ही घुसे चले आये। मुनिराज पर रानी की दृष्टि पड़ी। उन्हें नतमस्तक हो, रानी ने नमस्कार किया । एवं विनय से वह इस प्रकार कहने लगी
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