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________________ २१४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् हे त्रिगुप्तियों के पालक परमोत्तम मुनिराज! आप राजमंदिर में आहारार्थ ठहरें। मुनि गुणसागर ने ज्योंही रानी के वचन सुने शीघ्र ही उन्होंने अपनी तीन अँगुलियाँ दिखा दीं। मुनिराज की तीनों अंगुलियाँ देख रानी अति प्रसन्न हुई। उसने शीघ्र ही महाराज को अपने पास बुलाया। महाराज ने आकर भक्ति-भाव से मुनिराज को नमस्कार किया। आगे बढ़कर रानी ने मुनिराज को काष्टासन दिया। उनका पडगाहन (प्रतिगृहीत) किया। गरम पानी से उनके चरण प्रक्षालन किये। एवं महाराज नतमस्तक हो उन्हें भोजनालय में आहारार्थ ले गये। महाराज की प्रार्थनानुसार मुनिराज भोजनालय में गये तो सही। किंतु ज्योंही वे वहाँ पहुँचे अवधि ज्ञान के बल से शीघ्र ही उन्हें गड़े हुए हड्डी और चमड़े का पता लग गया। वे तत्काल ही यह कह कि राजन्! तेरा घर अपवित्र है। वहाँ से बाहर निकले और ईर्यापथ से जीवों की रक्षा करते हुए वन की ओर चले आये ॥१०४-११४॥ हाहारवं तदा चक्रु भूपाद्यास्तद्गुणावलिम् । संसयंतश्च तज्ज्ञानं वीक्ष्याश्चर्यपरंपरां ॥११५।। केन भो राज्ञि ते पूर्वं व्याघटय मुनिपुंगवाः । वने गताः शुभे कांते इत्याचख्यौ नृपस्तदा ॥११६।। न वेद्मि भूप ! तद्धेतुमावां यावो वने द्रुतम् । मुनीस्तान्नाथ पृच्छावो हेतुं संन्यस्तधर्मकः ।।११७।। ततस्तौ परया भूत्या जग्मतुर्वनमुत्तमं । दंपती दीप्तसर्वांगौ संगोक्तंवितमानसौ ॥११८॥ ततस्तत्र वने वीक्ष्य धर्मघोषमुनिमुदा । प्रणम्य भूपति भूयो पप्रच्छेति वृषकृते ।।११।। स्वामिन्मद्धाम्नि चर्यार्थमागतस्त्वं च हेतुना । केन नास्थास्तदा प्राह योगी योगांगसाधकः ॥१२०॥ राजन्नाश्या तदा चोक्तं त्रिगुप्तिर्भवतां यदि । स्थिता तर्हि भवद्भिश्च स्थातव्यं नान्यथा मुने ॥१२१।। त्रिगुप्तिनं स्थितास्माकमतो न स्थितिसंकृता । मया स्वामिन्कथं केन का गुप्तिर्न स्थितातव ॥१२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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