SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१५ श्रेणिक पुराणम् चारों मुनियों को इस प्रकार राजमंदिर से बिना कारण लौटा देख राजा श्रेणिक आदि समस्त जन हा-हाकार करने लगे। मुनियों का अलौकिक ज्ञान देख सब मनुष्यों के मुख से उनकी प्रशंसा निकलने लगी । महाराज श्रेणिक को भी इस बात का परम दुःख हुआ । वे शीघ्र रानी के पास आये और कहने लगे प्रिये ! यह क्या हुआ ? मुनिराज अकारण ही क्यों आहार छोड़ चले गये ? कुछ समझ नहीं आ रहा है, शीघ्र कहो । महाराज के ऐसे वचन सुन रानी ने उत्तर दिया । नाथ! मैं भी इस बात को नहीं जान सकी, मुनिगण क्यों तो राजमंदिर में आहारार्थं आये और क्यों फिर बिना आहार लिये चले गये । स्वामिन् ! चलिए, हम शीघ्र ही वन चलें। और जहाँ पर वे परम पवित्र यतीश्वर विराजमान हैं। वहाँ जाकर उन्हीं से यह बात पूछें। रानी चलना की मनोहर एवं संशय-निवारक यह युक्ति महाराज को पसंद आ गई । अतिशय तेजस्वी और मुनि-दर्शनार्थ उत्कंठित वे दोनों दंपती उनके पास गये । भक्तिपूर्वक उनके चरणों को नमस्कार किया । एवं अति विनय से महाराज ने यह पूछा प्रभो ! समस्त जगत के उद्धारक स्वामिन् ! मेरे शुभोदय से आप राजमंदिर में आहारार्थं ये थे । किंतु आप बिना आहार के ही चले आये, मैं यह न जान सका क्यों तो आप राजमंदिर में आहारार्थ गये और क्यों लौट आये? कृपाकर मेरे इस संशय को दूर करें । राजा के ऐसे वचन सुन मुनिवर धर्मघोष ने कहा -- राजन् ! जब हम राजमंदिर में आहारार्थ पहुँचे थे। हमें देख रानी चेलना ने यह कहा था कि है त्रिगुप्ति पालक मुनिराज ! आप मेरे राजमंदिर में आहारार्थ विराजे । हम त्रिगुप्ति पालक थे नहीं, इसलिए हम वहाँ न ठहरे। हमारे न ठहरने का और दूसरा कोई कारण न था । मुनिराज के ऐसे वचन सुन महाराज आश्चर्य - सागर में गोता मारने लगे । वे सोचने लगे - ये परम पवित्र मुनिराज किस गुप्ति के पालक नहीं हैं ? तथा ऐसा कुछ समय सोच-विचारकर महाराज ने शीघ्र ही मुनिराज से निवेदन किया कृपानाथ ! क्या आपके तीनों ही गुप्ति नहीं हैं ? अथवा कोई एक नहीं है ? तथा वह क्यों नहीं हैं ? कृपया शीघ्र कहें - ॥११५ - १२२ ।। Jain Education International इत्युक्ते स जगौ योगी राजन्मानसगोपनं । न स्थितं तत्कथां वक्ष्ये शृणु श्रेणिकमद्भवां ॥ १२३॥ कलिंगविषये पुरं दंतपुरं रम्ये विस्तीर्णे नगरादिभिः । हारि वणिग्वारविराजितं ॥ १२४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy