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सप्तमः सर्गः
ज्ञानभूषाय सिद्धाय नमः स्यान्मनिवातके । त्रिलोकस्य स्थितायैव तद्गुणाप्तिकृते पुनः ॥ १ ॥ ततो राज्ञा महादेवी पट्टोनंदश्रियः शुभः । बबंधे संभ्रमेणैव दुंदुभ्यानकवादतः ॥ २ ॥ अभयाय कुमाराय युवराज्यं ददौ मुदा । प्राधान्यं च नराधीशः सर्वसामंतसाक्षिकं ।। ३ ॥ जगबौद्धमयं कुर्वश्चितयंस्तद्गुणादिकम् । श्रेणिकोऽभयपुत्रेण रराज जितशात्रवः ॥ ४ ॥ भगवंतं गुरुं कृत्वा जाठराग्नि मदोद्धतम् ।
चतुरार्यमयं तत्वं पूजयामास भूपतिः ॥ ५ ॥ ज्ञानरूपी भूषण के धारक, तीनों लोक के मस्तक पर विराजमान श्री सिद्ध भगवान को उनके गुणों की प्राप्यतर्थ मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
__ अनंतर इसके महाराज श्रेणिक ने रानी नन्दश्री को नन्दिग्राम से बुला महादेवी का पद प्रदान किया-उसे पटरानी बनाया। तथा अभयकुमार को युवराज-पद दिया। अभयकुमार का बद्धिबल और तेजस्वीपन देख सामंतों को सम्मतिपूर्वक महाराज ने उन्हें सेनापति का पद भी दे दिया। एवं बुद्धदेव के गुणों में दत्तचित्त महाराज श्रेणिक ने किसी बौद्ध-संन्यासी को गुरु बनाया। और उसकी आज्ञानुसार वे आनंदपूर्वक चतुरार्यमय तत्त्व की पूजन करने लगे। तथा अपने राज्य को निष्कंटक राज्य बना अभयकुमार के साथ लोकोत्तर सुख अनुभव करने लगे।।१-५॥
अभयो बुद्धिकौशल्यं काशांचक्रे निरन्तरम् ।
नानानीति भयन्न्यायी विन्यायपथवजितः ॥ ६ ॥ अभयकुमार अतिशय बुद्धिमान थे। बुद्धिपूर्वक राज्य-कार्य करने से उनका चातुर्य और यश समस्त संसार में फैल गया। कुमार की न्यायपरायणता देख समस्त प्रजा मुक्त कंठ से उनकी तारीफ करने लगी। एवं कुमार की नीति-निपुणता से राज्य में किसी प्रकार की अनीति नजर न आने लगी। मगध देश की प्रजा आनंदपूर्वक रहने लगी॥६॥
अथेत्य पुण्यवान श्रेष्ठी समुद्रादिसुदत्तकः । द्वे भार्ये स्तः शुभे तस्य वसुदत्ता वरानना ॥ ७ ॥
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