________________
१२८
श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
वसुमित्रा शुभा पत्नी द्वितीया सुंदराकृतिः । मित्रायां च सुतो जातो दैवयोगाद्वराननः ॥ ८ ॥ कुतश्चिद्ग्रामतः श्रेष्ठी निवासाय समागमत् । स्त्रीभ्यां पुत्रेण साकं च पुरे तत्र सुमंदिरे ॥ ६ ॥ ततः सुखेन तत्रास्थाद्धनेभ्यो धनकांक्षिणे । यच्छन् धनं च कुर्वाणो धर्मधन निबंधनम् ॥ १० ॥
मगध देश में महान संपत्ति का धारक कोई समुद्रदत्त नाम का सेठ निवास करता था । उसकी दो स्त्रियाँ थीं । समुद्रदत्त की बड़ी स्त्री का नाम वसुदत्ता था। और उसकी दूसरी स्त्री जो अतिशय रूपवती थी, वसुमित्रा थी । उन दोनों में वसुदत्ता के कोई संतान न थी । केवल छोटी स्त्री वसुमित्रा के एक बालक था ।
1
कदाचित् घर में विपुल धन रहने पर भी सेठ समुद्रदत्त को धन कमाने की चिंता हुई । वे शीघ्र ही अपनी दोनों स्त्री और पुत्र के साथ विदेश को निकल पड़े। अनेक देशों में घूमते-घूमते वे राजगृह नगर आये। और वहाँ पर सुखपूर्वक धन का उपार्जन करने लगे व आनंदपूर्वक रहने लगे । दुर्देव की महिमा अपार संसार में जो घोर से घोर दुःख का सामना करना पड़ता है, इसी की कृपा है। इस निर्दयी दुर्देव को किसी पर दया नहीं । श्रेष्ठी समुद्रदत्त आनंदपूर्वक निवास करते थे । अचानक ही उन्हें काल ने ग्रसित किया। समुद्रदत्त को पुत्र व स्त्रियों से स्नेह छोड़ना पड़ा । समुद्रदत्त के मरने के बाद उनकी स्त्रियों को अपार दुःख हुआ। किंतु किया क्या जाए ? दुर्देव के सामने किसी की भी तीन पाँच नहीं चलती ॥ ७-१० ॥
Jain Education International
लाल्यते पाल्यते पुत्रो द्वाभ्यां स्त्रीभ्यां निरंतरम् । प्राप्यते स्तन्यमुत्संगे ध्रियते सममोहकः ।। ११॥ दैवादियोगेन मृतेऽभूत्कल हस्तयोः ।
दत्ते
संबद्धबहुकोपयोः ।। १२॥
वित्तपुत्रकृते नित्यं
वसुदत्ता वचो वक्ति पुत्रोऽयं मे न चान्यथा । वसुमित्रा तथा वक्ति तयो द्वेषो बभूव च ।। १३ ।।
जब तक सेठ समुद्रदत्त जीवित थे तब तक तो वसुदत्ता एवं वसुमित्रा में प्रगाढ़ प्रेम रहा । समुद्रदत्त के सामने यह विचार स्वप्न में भी नहीं आता था कि कभी इन दोनों में झगड़ा होगा । सेठजी के मरणोपरांत ये उनकी बुरी तरह अवहेलना करेंगी ? पुत्र के ऊपर भी उन दोनों का बराबर प्रेम था । पुत्र की खास माँ वसुमित्रा जिस प्रकार पुत्र पर अधिक प्रेम रखती थी । उससे भी अधिक वसुदत्ता का था । यहाँ तक कि समान रीति से पुत्र के लालन-पालन करने से
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org