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शुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
नहीं । महाभाग ! वकरा, बावड़ी, काष्ट, तेल, दूध, बालू की रस्सी, कूष्मांड़ रात-दिन आदि रहित, इत्यादि प्रश्नों के जवाब का सामर्थ्य आपकी बुद्धि में ही था । भला ऐसी विशाल बुद्धि अन्य मनुष्य में कहाँ से हो सकती है । इत्यादि अनेक प्रकार से अभयकुमार की तारीफ कर महाराज ने उनके साथ अधिक स्नेह जताया। दोनों पिता-पुत्र अनेक उत्तमोत्तम पुरुषों की कथा कहने लगे । आपस में वार्तालाप करते हुए, एक स्थान में स्थित, दोनों महानुभावों ने सूर्य-चन्द्रमा की उपमा को धारण किया। महाराज श्रेणिक ने सेठी इन्द्रदत्त का भी अति सम्मान किया । एवं मधुरभाषी, सोच-विचारकर कार्य करनेवाले, कुमार और महाराज आनंदपूर्वक राजगृह नगर में सुखानुभव करने लगे ।
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धर्म का माहात्म्य अचिंतनीय है । क्योंकि इसकी कृपा से संसार में जीवों को उत्तमोत्तम बुद्धि की प्राप्ति होती है । उत्तम संपत्ति मिलती है। तेजस्वीपना, सम्मान, गंभीरता आदि उत्तमोत्तम गुणों की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है। महाराज श्रेणिक एवं कुमार अभय ने पूर्व भव में कोई अपूर्व संचय किया था । इसलिए उन्हें इस जन्म में गंभीरता, शूरता, उदारता, बुद्धिमत्ता, तेजस्वीपना, सम्मान, रूपवानपना आदि उत्तमोत्तम गुणों की प्राप्ति हुई । इसलिए उत्तम पुरुषों को चाहिए कि वे हरेक अवस्था में इस परम प्रभावी धर्म का अवश्य आराधन करें ।। १७५-१८१ ।।
इति श्रेणिकभवानुबद्ध भविष्यत् श्री पद्मनाभ तीर्थंकर पुराणे मुमुक्षु श्री शुभचन्द्राचार्य विरचितेऽभयकुमारस्यनगरसमागमः षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥
इस प्रकार भविष्यत्काल में होनेवाले श्री पद्मनाभ तीर्थंकर के भवांतर के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित अभयकुमार का राजगृह में आगमन वर्णन करनेवाला छठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
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