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श्रेणिक पुराणम् वार्तालाप करने लगे। कुमार के साथ नंदिग्राम के विप्र भी थे। महाराज से उनका अपराध क्षमा कराया। उन्हें अभय दान दिला संतुष्ट किया। एवं उन्हें आनंदपूर्वक नन्दिग्राम में रहने के लिए आज्ञा दे दी॥१७१-१७४।।
राज्ञाभाणि कुमार त्वं गंभीरो धीधनाकुलः । नास्तीदृशी महाबुद्धिर्भुवने यादृशी त्वयि ॥१७॥ मेषश्वदीधिका दंती काष्ठं तैलं पयोंडजः । बालुकावेष्टनं कुंभ कूष्मांडाख्यमहाफलम् ।।१७६॥ अहोरात्रविवर्जं वै तत्तु सर्वं त्वयि स्थितं ।
महाबुद्धौ नरेऽन्यस्मिन् स्वप्नेऽपिविद्धिदुर्लभं ॥१७७।। तदुक्तं-मेषश्च वापी करि काष्टतैलं ।
__ क्षीरांड वालुक वेष्टनं च । घटस्थकूष्मांडफलं शिशूनां ।
दिवानिशावर्जसमागतं च ।।१७८।। अन्योन्य प्रेमबद्धौ जनकवरसुता वापतुः स्नेहसारम्, चक्राते मध्यसारां विहितशुभशतां
सत्कथां ग्रंथ्यमानं । रेजाते तौ सुचंद्रादिनकिरणसमौ नीतिधामप्रपन्नौ, रेमाते वाक्प्रबंधै सुघटितविषय
___ शिता नीतिमार्गः ॥१७६।। शास्त्रज्ञता धर्मवलेन जीवे ।
मेधाविता धर्मबलेन चैव । स्वसंगताधर्मबलेन लोके संजायते
पुण्यवतां विशोके ।।१८०॥ क्व गांभीर्यमौदार्यमशौर्यसारं,
___क्व बुद्धित्वमिद्धत्त्वमलब्धिपारम् । क्व रूपित्वमान्तवमासूक्तिधृत्वं
तयोरस्ति संन्यस्त वस्तुत्वसत्वम् ।।१८१।। कुमार के इस विनय-बर्ताव से एवं लोकोत्तर चातुर्य से महाराज श्रेणिक को अति प्रसन्नता हुई। कुमार की बिना प्रशंसा किये उनसे न रहा गया । वे इस प्रकार कुमार की प्रशंसा करने लगे। भो कुमार ! जैसा ऊँचे दर्जे का पांडित्य आपमें मौजूद है वैसा पांडित्य कहीं पर
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