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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् घोंटाफल सुखंडानि प्रचुराणि दग्धचूर्णकः । अंगुल्या चित्रयन्भूमि वाचयन्कृतकौतुकं ॥११०॥ चर्बयन् संत्यजन् धीमान् कषायं दग्धचूर्णकैः । अंगुल्या चित्रयन्भूमि वाचयन्कृतकौतुकम् ॥११॥ सर्वं योग्यं यदाजातं नागवल्लीदलानि सः। तदा चखाद प्रागल्भाद्दर्शयन् वक्त्ररागतां ॥११२॥ ततोऽतिहृष्टा संसक्ता पश्यंती कृतकौतुकं । तस्मिन् बभूव नंदश्री राजहंसीव हंसके ।।११३।। अथो तदनु सा बाला प्रवालं वक्रछिद्रितं । तस्मै ददौ गुणं चैकं प्रवेशाय विनिश्चितं ॥११४॥
जिस समय नन्दश्री ने पूओं की कीमत को देखा तो उसको बड़ी प्रसन्नता हुई। और उसने भांति-भांति के मधुर भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया। जिस समय वह भोजन बना चुकी उसने भोजन के लिए कुमार को वुला भी लिया। भोजन का बुलावा सुन नन्दश्री का रूप देखने के अति लोलुपी, अपने मन में अति प्रसन्न, कुमार पाकशाला में चट जा धमके। कुमारी ने कुमार को देखते ही आदरपूर्वक आसन दिया। और प्रेमपूर्वक भोजन कराना आरम्भ कर दिया। कभी तो वह कुमारी भोजन में मग्न कुमार को खैरि आदि पदार्थों के उत्तम रसों से परिपूर्ण, अनेक मसालों से युक्त, अति मधुर बेरों के टुकड़ों को खिलाती हुई। और कभी अपनी चतुरता से भाँति-भांति के फलों का उसने भोजन कराया। तथा कभी-कभी उसने दूध, दही मिश्रित नाना प्रकार के व्यंजन बनाकर कुमार को खिलाये। एवं कुमार भी उसके चातुर्य पर विचार करते-करते भोजन करते रहे। तथा जिस समय कुमार भोजन कर चुके उस समय कुमार ने पान खाया। इस प्रकार कुमार के चातुर्य से अति प्रसन्न, उनके गुणों में अतिशय आसक्त, कुमारी नन्दश्री जिस प्रकार राजकुमार के पास बैठी हुई राजहंसी शोभित होती है कुमार के समीप में बैठी हुई अत्यंत शोभित होने लगी॥१०६-११४।।
विलोक्य दुर्घटं कार्य वितर्य हृदि तत्क्षणम् । चकार तत्प्रवेशायोद्यमं संसक्त मानसः ॥११५॥ गुडं डवरकाग्रे स विलिप्य तत्र छिद्रके । यावद्याति स्वशक्त्या च प्रविविश्य च सद्गुणं ॥११॥ मुक्तं प्रवालमापूर्ण रम्यं पिपीलिकागृहे । सगुणं स तदा ताभिराकृष्टो गुडबुद्धितः ॥११७॥
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