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श्रेणिक पुराणम्
प्रदर्श्य भपतिं तेन चित्रकारा जिताः खलु । नृपस्तुतोष तस्मै च ददौवृत्ति मनोहराम् ।। १४ ।। राजद्वारे विलेख्याशु कन्यारूपाणि शोभया ।। बबंध: भरतः प्रीत्या पट्ट सप्तविचक्षणः ॥ १५॥ .. वीक्ष्य लोकाः स्मयं जग्मुर्दारे ततो जनैर्वरैः । संकार्यसप्तरूपाणि क्षणेन च बबंधिरे ।। १६ ॥
कन्याएँ भी भाँति-भाँति के कला-कौशलों से माता-पिता को सदा संतुष्ट करती रहती थीं।
कदाचित् भ्रमण करता-करता चित्रकार भरत इसी विशाल नगरी में आ पहुँचा। उसने सातों कन्याओं का शीघ्र ही चित्र अंकित किया। एवं उसे महाराज चेटक की सभा में जा हाजिर किया। और महाराज के पूछे जाने पर उसने अपना परिचय भी दे दिया।
अति चतुरता से पट पर अंकित कन्याओं का चित्र देख राजा चेटक अति प्रसन्न हुए। भरत की चित्र, चित्र-विषयक कारीगरी देख महाराज बार-बार भरत की प्रशंसा करने लगे। और उचित पारितोषिक दे राजा चेटक ने भरत को पूर्णतया सम्मानित भी किया।
किसी समय महाराज की प्रसन्नता के लिए भरत ने उन सातों कन्याओं का चित्र राजद्वार में अंकित कर दिया। और उसे भाँति-भाँति के रंगों से रंगित कर अति मनोहर बना दिया। चित्र की सुघड़ाई देख समस्त नगरनिवासी उस चित्र को देखने आने लगे। और उन सातों कन्याओं का वैसा ही चित्र नगरनिवासियों ने अपने-अपने द्वारों पर भी खींच लिया। एवं कन्याओं के चित्र से अपने को धन्य समझने लगे ॥१३-१६।।
ततः प्रभृति संजातं मिथ्यात्वं सप्तमातृकं । देशे देशे पुरे ग्रामेऽद्यापि तद्वर्त्तते खलु ॥ १७ ॥ ततो भूपतिना दत्ता सिद्धार्थाय मनोहरा। प्रथमा कुंडनाथाय नाथवंशाय रूपिणे ॥ १८ ॥ विषये वत्सनामाख्ये कौशांबीपुरवासिने । सोमवंशे च नाकाय वितीर्णा द्वितीया सुता ॥ १६॥ दशार्णविषये दत्ता हेरकच्छपुरेशिने । राशे दशरथायैव सूर्यवंशे च सुप्रभा ॥ २० ॥ कच्छाख्यविषये दत्ता रोरुखाख्यपुरेशिने । महानुदयने तेन विख्याता च प्रभावती ।। २१ ।।
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