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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
भावत्के यद्गृहे नास्ति तन्नास्ति भुवनत्रये । अतो वृथा न दातव्यो देशो दैवावघातकः ॥१२५।। वाक्प्रबंधेन भूपालमिति संजित्य वाड़वाः । प्राप्य स्वपत्तनं वेगान्नेमुस्तत्पादपंकजम् ॥१२६।।
महाराज की आज्ञा पाते ही दूत नन्दिग्राम की ओर चल दिया। तथा नन्दिग्राम में पहुँच कर उसने विप्रों के सामने महाराज श्रेणिक का सारा संदेशा कह सुनाया।
दूत द्वारा महाराज की यह आज्ञा सुन विप्रों के तो बिलकुल छक्के छूट गये। वे भागतेभागते अभयकुमार के पास पहुंचे तथा अभयकुमार के सामने सारा संदेशा निवेदन कर उन्होंने कहा-पूज्य कुमार ! अबकी महाराज ने यह क्या आज्ञा दी है। इसका हमें अर्थ ही नहीं मालूम हुआ। हमने तो आज तक न बालू की रस्सी सुनी और न देखी।
विप्रों द्वारा महाराज की आज्ञा सुन कुमार ने उत्तर दिया कि आप किसी भी बात से घबराइये नहीं । इसका उपाय यही है कि आप लोग अभी राजगृह नगर जाएँ। और महाराज के सामने यह निवेदन करें। श्री राजाधिराज ! आपके भण्डार में कोई दूसरी बालू की रस्सी हो तो कृपाकर हमें देवें, जिससे हम वैसी ही रस्सी आपकी सेवा में लाकर हाजिर कर दें। यदि महाराज मना करें कि हमारे यहाँ वैसी रस्सी नहीं है तो उनसे आप विनयपूर्वक अपने अपराध की क्षमा मांग लीजिए। और यह प्रार्थना कर दीजिए कि हे महाराज ! कृपाकर ऐसी अलभ्य वस्तु की हमें आज्ञा न दिया करें। हम आपकी दीन प्रजा हैं।
कुमार की यह युक्ति सुनकर विप्रों को अति हर्ष हुआ। वे अत्यंत आनंदित हो उछलतेकूदते शीघ्र ही राजगृह नगर जा पहुँचे। राजमंदिर में प्रवेश कर उन्होंने महाराज को नमस्कार किया। और विनयपूर्वक यह निवेदन किया
श्रीमहाराज! आपने हमें बालू की रस्सी के लिए आज्ञा दी है। हमें नहीं मालूम होता हम कैसी रस्सी आपकी सेवा में ला हाजिर करें। कृपया हमें कोई दूसरी बाल की रस्सी मिले तो हम वैसी ही आपकी सेवा में हाजिर कर दें । अपराध क्षमा हो।
विप्रों की बात सुन महाराज ने उत्तर दिया। हे विप्रो ! मेरे यहाँ कोई भी बाल की रस्सी नहीं। बस, फिर क्या था ! महाराज के मुख से शब्द निकलते ही विप्रों ने एक स्वर हो इस प्रकार निवेदन किया
हे कृपानाथ ! जब आपके भंडार में भी रस्सी नहीं है तो हम कहाँ से बालू की रस्सी बना कर ला सकते हैं। प्रभो! कृपया हम पर ऐसी अलभ्य वस्तु के लिए आज्ञा न भेजा करें। आपकी ऐसी कठोर आज्ञा हमारा घोर अहित करनेवाली है। हम आपके ताबेदार हैं, आप हमारे स्वामी
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