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________________ श्रेणिक पुराणम् ११५ महाराज की आज्ञा पाते ही दूत फिर चल दिया। और नन्दिग्राम में पहुँच उसने विप्रों से जाकर यह कहा कि आप लोगों के लिए महाराज ने यह आज्ञा दी है कि नन्दिग्राम के विप्र राजगृह नगर आयें। और हमारे सामने एक ही मुर्गे को लड़ावें । यदि यह बात उनको नामंजूर हो तो वे शीघ्र ही नन्दिग्राम को खाली कर चले जायें। दूत के वचन सुन विप्र फिर घबराकर अभयकुमार के पास गये। और महाराज का सारा संदेशा उनके सामने निवेदन कर दिया। तथा यह भी कहा-महनीय कुमार ! अबकी महाराज ने हमें अपने सामने बुलाया है। अबको हमारे ऊपर अति भयंकर विघ्न मालूम पड़ता है। विप्रों के ऐसे वचन सुन कुमार ने उत्तर दिया-आप खुशी से राजगृह नगर जायें। आप किसी बात से घबरायें नहीं! वहाँ जाकर एक काम करें, मुर्गे को अपने सामने खड़ा कर एक दर्पण उसके सामने रख दें। जिस समय वह मुर्गा दर्पण में अपनी तस्वीर देखेगा। अपना बैरी दूसरा मुर्गा समझ वह फौरन लड़ने लग जायेगा । और आपका काम सिद्ध हो जायेगा। ___ कुमार के मुख से यह युक्ति सुनकर मारे हर्ष के विप्रों का शरीर रोमांचित हो गया। एक मुर्गा लेकर वे शीघ्र ही राजगृह नगर की ओर चल दिये। राजमंदिर में पहुंचकर उन्होंने भक्तिपूर्वक महाराज को नमस्कार किया। तथा उनके सामने उन्होंने मुर्गा छोड़ दिया। और उसके आगे एक दर्पण रख दिया जिस समय असली मुर्गे ने दर्पण में अपनी तस्वीर देखी तो उसने उसे अपना बैरी असली मुर्गा समझा। और वह चोंच मार-मारकर उसके साथ अति आतुर हो युद्ध करने लग गया। __ अकेले ही मुर्गे को युद्ध करते हुए देख महाराज चकित रह गये। उन्होंने शीघ्र ही मुर्गे की लड़ाई समाप्त करा दी। तथा विप्रों को जाने के लिए आज्ञा दे दी। जिस समय विप्र चले गये तब महाराज के मन में फिर सोच उठा । वे विचारने लगे कि विप्र बड़े बुद्धिमान हैं। उनको अब किस रीति से दोषी बनाया जाय? कुछ समझ में नहीं आता। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर उन्होंने फिर किसी सेवक को बुलाया। और उससे कहा कि तुम शीघ्र नन्दिग्राम जाओ। और वहाँ के वित्रों से कहो कि महाराज ने बालू की रस्सी मॅगाई है, शोघ्र तैयार कर भेजो। नहीं तो अच्छा न होगा ॥११६-१२१॥ अभयाद्बुद्धिमासाद्य जग्मुस्ते राजसन्निधिम् । आदाय वालुकावृदं प्रणम्येति वचो जगुः ।।१२२॥ बालुकावेष्टनं भूपभांडागारस्थमुत्तमम् । देयं तेन प्रमाणेन क्रियते तत्समं पुनः ॥१२३॥ भूपोऽगदीद्वचो विप्रा नास्ति तद्वेष्टनं मम । भांडालये तदा प्रोचुर्युक्तं युक्तं द्विजानृप ॥१२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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