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श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
भरत क्षेत्र में महाराज श्रेणिक सम्यग्दर्शन से अतिशय शोभित हैं। वर्तमान में उनके समान क्षायिक सम्यक्त्व का धारक दूसरा कोई नहीं। जिसके सम्यग्दर्शन रूपी विशाल वृक्ष को मिथ्यादर्शन रूपी गज तोड़ नहीं सकता और वह वृक्ष महाशास्त्ररूपी दृढ़ मूल का धारक और स्थिर है। कुसंगम कुठार उसे छेद नहीं सकता। कुशास्त्ररूपी प्रबल पवन भी उसे नहीं चला सकती। उसका सम्यक्त्वरूपी वृक्ष शास्त्री जल से सिंचित है और उस सम्यग्दर्शन का दृढ़ भावरूपी महामल छिन्न नहीं किया जा सकता। महाराज इन्द्र द्वारा श्रेणिक के सम्यग्दृष्टिपने की इस प्रकार प्रशंसा सुन सभा में स्थित समस्त देव आश्चर्य करने लगे एवं अति प्रीतियुक्त किंतु मन में अति आश्चर्ययुक्त दो देव शीघ्र ही महाराज श्रेणिक की परीक्षार्थ पृथ्वीमण्डल पर उतरे और कहाँ तो महाराज श्रेणिक मनुष्य ? और कहाँ फिर उनकी इन्द्र द्वारा तारीफ? यह भले प्रकार विचार कर जो महाराज श्रेणिक के आने का मार्ग था उस मार्ग पर स्थित हो गये। उनमें एक देव ने पीछी कमण्डलु हाथ में लेकर मुनिरूप धारण किया और दूसरे ने आर्यिका का। वह आर्यिका गर्भवती बन गई और मुनिवेशधारी वह देव मछलियों को किसी तालाब से निकाल अपने कमण्डल में रखता हुआ उस गर्भवती आयिका के साथ रहने लगा। महाराज श्रेणिक वहाँ आये। उन्हें देख जल्दी घोड़े से उतर और भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार कर कहने लगे
समस्त मनुष्यों का हास्यास्पद यह दुष्कर्म आप क्यों कर रहे हैं ? इस वेश में यह दुष्कर्म आपको सर्वथा वर्जनीय है। श्रेणिक के ऐसे वचन सुन मायावी उस देव ने जवाब दिया
राजन् ! गर्भवती इस आर्यिका को मछली के मांस खाने की अभिलाषा हुई है।
इसलिए इसी के लिये मैं मछलियाँ पकड़ रहा हूँ। इस कर्म से मुझे, कोई दोष नहीं लग सकता । देव की यह बात सुन श्रेणिक ने कहा
मुनिवेश धारण कर यह कर्म आपके लिए सर्वथा अयोग्य है। इसमें मुनिलिंग की बड़ी भारी निंदा है। आपको चाहिये कि इस काम को आप सर्वथा छोड़ दें। देव ने कहा
राजन् ! तुम्हीं कहो इस समय हमें क्या करना चाहिये ? मेरा अनायास ही इस निर्जन वन में इस आर्यिका के साथ सम्बन्ध हो गया इसलिए इसे गर्भोत्पत्ति और मांसाभिलाषा हो गई। मैं इसे अब चाहता हूँ इसलिए मेरा कर्तव्य है मैं इसकी इच्छाएं पूर्ण करूं। छली मुनि की यह बात सुन राजा ने कहा
तथापि मुने ! इस वेश में तुम्हारा यह कर्तव्य सर्वथा अयोग्य है। आपको कदापि यह काम नहीं करना चाहिये। राजा के ऐसे वचन सुन देव ने कहा
राजन् ! आप क्या विचार कर रहे हैं ? जितने मुनि और आर्यिकाओं को आप देख रहे हैं वे सब मेरे ही समान शुभ कार्य से विमुख हैं। निर्दोष कोई भी नहीं। महाराज ! जिसकी अँगुली दबती है उसे ही वेदना होती है। अन्य मनुष्य वेदना का अनुभव नहीं कर सकते वे तो हँसते हैं उसी प्रकार आप हमें देखकर हँसते हैं। देव को यह बात सुन श्रेणिक को कुछ क्रोध-सा आ गया। वे कहने लगे
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