SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रेणिक पुराणम् ३२५ मुने ! तू मुनि नहीं है बड़ा निकृष्ट दयारहित चरित्र-विमुख और मूर्ख है । तेरे सम्यग्दर्शन भी नहीं मालूम होता। श्रेणिक के ऐसे वचन सुन देव ने जवाब दिया राजन् ! जो मैंने कहा है सो बिलकुल ठीक कहा है। क्या तेरा यह कर्तव्य है कि तू परम योगियों को गाली प्रदान करे? हमने समझ लिया कि तुझमें जैनीपना नाममात्र का है। यतियों को मर्म विदारक गाली देने से जैनीपने का तुझमें कोई गुण नहीं दीख पड़ता? देव के ऐसे वचन सुन महाराज ने कहा मुने! संवेगादि गुणों के अभाव से तो तेरे सम्यग्दर्शन नहीं है और दया बिना चारित्र नहीं है। ऐसे दुष्कर्म करने से तू बुद्धिमान भी नहीं है, नोतिमान योगी और शास्त्रवेत्ता भी नहीं। साधो! यदि तू ऐसा करेगा तो जैनधर्म की प्रभावना का नाश हो जायेगा। इसलिये तेरा यह कर्तव्य सर्वथा अनुचित है। यदि तू नहीं मानता तो तुझे नियम से इस दुष्कर्म का फल भोगना पड़ेगा। मुने! जो तुमने मुझसे दुष्ट वचन कहे हैं उनसे तुम कदापि मुनि नहीं हो सकते। इसलिए तुम शीघ्र ही दुष्कर्म का त्याग करो जिससे तुम्हें मुक्ति मिले। अभी तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हारी सब आशा पूरी करूँगा और यदि तुम मेरे साथ नहीं चलोगे तो तुम्हें गधे पर चढ़ाकर तुम्हारा हाल-बेहाल करूँगा। इस प्रकार साम्य आदि वचनों से मुनि को समझा, आश्वासन दे राजा श्रेणिक को चारित्र भ्रष्ट मुनि और आर्यिका के साथ देखा तो वे कहने लगे राजन् ! आप क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आपके संग चारित्र भ्रष्ट इस मुनि आर्यिका युगल के साथ कदापि योग्य नहीं हो सकता। आपको इनका सम्बन्ध शीघ्र ही छोड़ देना योग्य है। चारित्र भ्रष्ट मुनि आर्यिका के नमस्कार करने से आपके दर्शन में अतिचार आता है। मंत्रियों के ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिक ने जवाब दिया ।।८६-११३।। अतिचारो न ते देव दर्शनस्य नृपो जगौ। अयं मुनिसमाकारो जैनं मत्वा नुतो मया ॥११४॥ न चवं दर्शनस्यातिचारश्चारित्रजो भवेत् । तच्चारित्रं न मय्यस्ति को दोषोऽस्यनुतौ मम ।।११।। दृष्ट्वेति दर्शनविधिं त्रिदशाधिपेन, तस्य जुतं सुर वरौ हृदये प्रहृष्टौ । साक्षाद्विभूय विनतौ चरणांस्तयोश्च, जायापतिद्वितययोर्वरशर्मभाजी ॥११६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy