SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रेणिक पुराणम् २२७ ___ मैं अनेक देशों में विहार करता-करता राजगह आया। आज मैं आपके यहां आहारार्थ भी गया, किंतु मैं त्रिगुप्तिपालक था नहीं। इसलिए मैंने आहार न लिया। मेरे आहार के न लेने का अन्य कोई कारण नहीं। विनीत मगधेश ! यह आप निश्चय समझें जो मुनि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के पालक होते हैं वे नियम से अवधि-ज्ञान के धारक होते हैं। तीनों गुप्तियों में एक भी गुप्ति को न रखनेवाले मुनिराज के अवधिज्ञान, मनःपर्यज्ञान और केवलज्ञान तीनों ज्ञानों में से एक भी ज्ञान नहीं होता। साधारण जीवों के समान उनके मति, श्रुति दो ही ज्ञान होते हैं। राजन् ! मन में उत्पन्न खोटे विकल्पों के निरोध के लिए मनोगुप्ति का पालन किया जाता है। इस मनोगुप्ति का पालन करना सरल बात नहीं। इस गुप्ति का वे ही पालन कर सकते हैं जो ज्ञान-पूजा आदि अष्ट मदों के विजयी, यतीश्वर होते हैं । और शुभ एवं अशुभ संकल्पों से बहिर्भूत रहते हैं। उसी प्रकार वचनगुप्ति का पालन करना भी अति कठिन है। जो मुनिश्वर वचनगुप्ति के पालक होते हैं। उन्हें स्वर्ग-सुख की प्राप्ति होती है। अनेक प्रकार के कल्याण मिलते हैं। विशेष कहाँ तक कहा जाय वचनगुप्तिपालक मुनिराज समस्त कर्मों का नाश कर सिद्धावस्था को भी प्राप्त हो जाते हैं। तथा इसी प्रकार कायगुप्ति का पालन भी अति कठिन है। शरीर से सर्वथा निर्मम होकर विरले ही मुनिश्वर कायगुप्ति के पालक होते हैं। तीनों गुप्तियों के पालक मुनिराज निर्मल होते हैं। उन्हें तप के प्रभाव से अनेक प्रकार की लब्धियाँ मिलती हैं। उनकी आत्मा सम्यग्ज्ञान से सदा भूषित रहती हैं । एवं वे जैन धर्म के संचालक समझे जाते हैं। इस प्रकार मुनिवर धर्मघोष और जिनपाल के मुख से मनोगुप्ति और वचनगुप्ति की कथा सुन राजाश्रेणिक और रानी चेलना को अति आनंद मिला। वे दोनों दंपती परम पवित्र दोनों गुप्तियों की बार-बार प्रशंसा करने लगे। उनके मुख से समस्त बाधा रहित मुनिमार्ग की एवं केवली प्रतिपादित श्रुतज्ञान की भी अविरल प्रशंसा निकलने लगी॥१९०-१९६॥ इति श्री श्रेणिकभवानुबद्ध भविष्यत्पद्मनाभ पुराणे भट्टारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचिते गुप्तिविक कथावर्णनं नाम वशमः सर्गः ॥१०॥ इस प्रकार पदमनाभ तीर्थंकर के भवांतर के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में भद्रारक श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित मनोगुप्ति, वचनगुप्ति दोनों गुप्तियों की कथा-वर्णन करनेवाला दशम सर्ग समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy