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________________ ७० Jain Education International श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अत एमि सुजं वालेवां ह्रः पंकावलेपने । को दोषो मम जायेत वितर्येति चिरं हृदि ।। ८५ ।। पंकेऽगमत्तदा धीमान् बुद्धिभारसमर्थितः । तादृशंतं पुनर्वीक्ष्य विस्मिताभूत्सुकामिनी ॥ ८६ ॥ प्रागमत्प्रांगणेततः । पंकावलिप्तपादोऽसौ जलमंजलिदध्नं सा प्रेषयामास तं प्रति ।। ८७ ।। 1 इधर कुमार के आने का समय जानकर कुमार की और भी बुद्धि की परीक्षा के लिए कुमारी नन्दश्री ने द्वार के सामने घोंटूपर्यंत कीचड़ डलवा रखी थी । और उसमें एक-एक पैर के फासले से एक-एक ईंट भी रखवा दी थी तथा अपनी प्रिय सखी से वह यों अपना विचार प्रकट कर रही थी कि हे आलि ! अब मैं कुमार की बुद्धि की परीक्षा जब स्वयं अपने नेत्रों से कर लूंगी तब मैं उस कुमार के साथ अपने विवाह की प्रतिज्ञा करूँगी । नन्दश्री की यह बात सुनकर कुमार के बुद्धि-चातुर्य को देखने के लिए वह निपुणमती सुन्दरी भी उसके पास बैठ गई । इस प्रकार अनेक कथा - कौतूहलों को करती हुईं वे दोनों कुमार के आगमन का इंतजार कर रही थीं कि इतने में कुमार श्रेणिक भी दरवाजे के पास आ पहुँचे । आते ही जब उन्होंने द्वार पर घोंटूपर्यंत भरी हुई कीचड़ देखी और उस कीचड़ के ऊपर एक-एक पैर के फासले से रखी हुई ईंटें भी जब उनकी नजर पड़ीं तो यह विचित्र दृश्य देखकर वे एकदम दंग रह गये । और अपने मन में विचार करने लगे कि बड़े आश्चर्य की बात है कि नगर-भर में और कहीं पर भी कीचड़ देखने में नहीं आई । कीचड़ वर्षाकाल में होती है। वर्षा का मौसम भी इस समय नहीं । फिर इस द्वार के सामने कीचड़ कहाँ से आई ? मालूम होता है कि नन्दश्री ने मेरी बुद्धि की परीक्षा के लिए यह द्वार पर कीचड़ भरवाई है | और कीचड़ के मध्य में ईंट रखवाई हैं । दूसरा कोई भी प्रयोजन नजर नहीं आता । मुझे अब इस घर के भीतर जाना आवश्यकोय है यदि मैं इन ईंटों पर पाँव रखकर भीतर जाता हूँ तो अवश्य गिरता हूँ। और कीचड़ में गिरने पर मेरी हँसी होती है । हँसी संसार में अत्यंत दुःख की देनेवाली है । इसलिए मुझे कीचड़ में होकर ही जाना चाहिए यदि मेरे पाँव कीचड़ में जाने से लिथड़ भी जायें तो भी मेरा कोई नुकसान नहीं। ऐसा क्षणेक अपने मन में पक्का निश्चय कर अतिशय बुद्धिमान, भली प्रकार लोक- चातुर्य में पंडित, कुमार श्रेणिक ने, उस कीचड़ में होकर ही महल में प्रवेश किया ।।७७- ८७।। पादप्रक्षालनायैव दृष्ट्वा नीरं सविस्मितः । क्वेदं नीरं क्व पादस्य कर्दमः क्व विनाशनं ॥ ८८ ॥ वेणुवीरणमादाय न्यवारयत्स करस्पर्शनयोगतः । जंबालं समस्तं बुद्धितोनृपः ॥ ८६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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