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श्रेणिक पुराणम्
बालों में उसे अच्छी तरह लगाया। और इच्छापूर्वक उस तालाब में स्नान किया पीछे वहाँ से नगर की ओर चल दिये । स्वर्गपुर के समान उत्तम शोभा धारण करनेवाले उस पुर में घुसकर वे यह विचारने लगे कि सेठी इन्द्रदत्त का घर कहाँ ? और किस ओर है ? मुझे किस मार्ग से सेठी इन्द्रदत्त के घर जाना चाहिए। इसी विचार में वे इधर-उधर बहुत घूमे। अनेक घर देखे। बहुतसी गलियों में भ्रमण किया। किन्तु इन्द्रदत्त के घर का उन्हें पता न लगा अंत में घूमते-घूमते जब वे श्रांत हो गये और ज्योंही उन्होंने श्रम दूर करने के लिए किसी स्थान पर बैठना चाहा त्योंही उन्हें निपूणमती के इशारे का स्मरण आया। वे अपने मन में विचार करने लगे कि जिस समय निपुणमती तालाब से गई थी उस समय मैंने उसे पूछा था कि सेठी इन्द्रदत्त का घर कहाँ है ? उस समय उसने कुछ भी जवाब नहीं दिया था। किंतु ताल-वृक्ष के पत्ते से बने हुए भूषण से मंडित वह अपना कान दिखाकर ही चली गई थी। इसलिए जान पड़ता है कि जिस घर में ताल का वृक्ष हो निःसंशय वही सेठी इन्द्रदत्त का घर है। अब कुमार ताल-वृक्ष सहित घर का पता लगाने लगे। लगाते-लगाते उन्हें एक ताल-वृक्ष से मंडित सतरखना महल नजर पड़ा। तथा लालसापूर्वक वे उसी की ओर झुक पड़े॥७१-७६॥
पंकस्योपरि पाषाणाः क्षुद्राः अंह्रिस्थितिकृते । मोचयांचक्रिरे सिद्ध कौतुकाच्च तया स्थिराः ।। ७७ ॥ ग्रावोपरि निजौ पादौ धरिष्यति यदा तदा । भविष्यति वयस्येवै पतनं तस्य धीमतः ॥ ७८ ॥ पश्यामि तस्य कौशल्यं निजनेत्रेण भो सखि । हसिष्यामि सुपातेन कुमारं तं शुभावहम् ॥ ७९ ॥ कुतूहलमयांतस्थायावदास्तेति सुंदरी। वावबुद्धया च गंभीर आजगाम कुतूहली ॥२०॥ द्वारे विलोकयामास जंबालं जानुमात्रकम् । ' अस्थिरक्षुद्रपाषाणस्थगितं बहुलं परम् ॥ ८१॥ अहो न दश्यते क्वापि जंबालः पत्तनेऽखिले।। अत्र कस्मात्समायातस्तत्कालादिविना पुनः ।। ८२॥ कौशल्येन कृतं वेद्भि पंकनंदिश्रिया तया । पाषाणमोचनं चापि मम पाताय केवलम् ।। ८३ ।। यदि गच्छामि पाषाणमार्गे स्यात्पतनं मम । हसिष्यंति तथा लोका अहो ! दुःखंहि हास्यजम् ।। ८४ ।।
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