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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
अथ स श्रेणिको धीमांस्तैलाभ्यंगं चकार बै । स्नात्वा जलाशये बुद्धया स्निग्धतैलावमिश्रितान् ॥ ७० ॥
कुमार के चातुर्य के देखने से प्रफुल्लित कमलों के समान नेत्रों से शोभित सखी निपुणमती ने शीघ्र ही अत्यंत मनोहर सेठी इन्द्रदत्त के घर में प्रवेश किया और कुमारी नन्दश्री के पास जाकर जो-जो कुमार श्रेणिक का चातुर्य उसने देखाथा सब कह सुनाया। कुमारी नन्दश्री निपुणमती से कुमार के चातुर्य की प्रशंसा सुनकर शीघ्र ही अपने पिता के पास गई और जो कुमार श्रेणिक का चातुर्य उसके पिता का आश्चर्य का करनेवाला था उसे सेठी इन्द्रदत्त को जा सुनाया। और यह कहा कि हे तात! कुमार श्रेणिक अत्यंत गुणी हैं, ज्ञानवान हैं, समस्त जगत के चातुर्यों में प्रवीण हैं, कोकशास्त्र के भी ज्ञाता हैं, और अनेक प्रकार की कलाओं को भी जाननेवाले हैं इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं। इसलिए आप कुमार के पास जायें और शीघ्र ही यहाँ पर उनको लेकर आवें। आप उन्हें पागल न समझें क्योंकि जिस समय आप कुमार के साथ-साथ आये थे उस समय जिह्वारथ आदि वाक्यों से कुमार कोड़ा करते हुए आपके साथ में आये थे। और उन वाक्यों से कुमार ने अपना चातुर्य आपको बतलाया था। उनमें स्वाभाविक, मनोहर एवं अनेक प्रकार के कल्याणों को करनेवाले अनेक गुण विद्यमान हैं ॥६६-७०॥
कचानजनतामस्यषट्पदाभांश्च सज्जलान् । चकार विधिवत्पूर्णस्नानो निर्जितमन्मथः ।। ७१ ॥ निर्जगाम ततः स्वरं पुरं नाकपुरप्रभम् । क्वास्ते तन्मंदिरं रम्यं न बेमीति व्यतर्कयत् ।। ७२ ॥ इतस्ततो गृहान् सर्वान्प्रेक्ष्यमाणश्चवीथिकाम् ।। अटन् स स्मारसंकेतं निपुणादिमतीकृतम् ।। ७३ ।। तया मे दर्शिकर्णश्व तालद्रुमदलान्वितः । मेने तालद्रुमाकीर्णं गृहं तस्य न संशयः ॥ ७४ ॥ इति चिंतयता तेनादशि तालद्रुमांकितं । वेश्माऽबोधिततस्तस्येदं च सप्तसुभूमकं ॥ ७५ ।। तावन्नदश्रिया तस्य परीक्षाकृत एव च । जंबालो वि च कल्ये वै जानुदघ्नोऽतिदूरतः ॥ ७६ ॥
इधर कुमार के विषय में नन्दश्री तो यह कह रही थी उधर कुमार ने निपुणमती के चले जाने पर पहले तो उस तेल से अपने शरीर का अच्छी तरह मर्दन किया। अंजन के समान काले
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