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श्रेणिक पुराणम्
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कुमार के इस उत्तम चातुर्य को देख कर कुमारी नन्दश्री दंग रह गई। किन्तु कुमार की बुद्धि की परीक्षा का कौतूहल अभी तक उसका समाप्त नहीं हुआ। इसलिए जिस समय कुमार उस कीचड़ को लाँघकर महल में घुसे। और जिस समय नन्दश्री ने उनके पाँव कीचड़ से भरे हुए देखे। तो फिर भी उसने किसी सखी द्वारा कीचड़ धोने के लिए एक चुल्ल पानी कुमार के पास भेजा।।८८-८६॥
निवार्येति स जंबालं साद्रौं कृत्वा निजी क्रमौ । प्रक्षाल्य स्तोकनीरेण शुद्धौ चक्रे शुभौ क्रमौ ।। ६०॥ प्रेषितार्द्ध जलं तेन पुनरावर्त्य सद्धिया। तस्य दत्तं महाचित्र करं प्रणयकारणम् ।। ६१ ॥ अहो चित्रमहो चित्रमहो कौशल्यमुत्तमं । अहो दाक्षिण्यमत्रास्ते यत्तन्न भुवनत्रये ॥ १२ ॥
कुमार ने जिस समय कुमारी नन्दश्री द्वारा भेजा हुआ थोड़ा-सा पानी देखा तो देखकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अपने मन में पुनः विचारने लगे कि कहाँ तो इतना अधिक कीचड? और यह न कुछ जल ? इससे कैसे कीचड़ धुल सकती है ? तथा क्षणेक ऐसा विचार कर । और एक बांस की फच्चट लेकर पहले तो उससे उन्होंने पैर में लगे हुए कीचड़ को खुरचकर दूर किया बाद में उस नन्दश्री द्वारा भेजे हुए पानी के कुछ हिस्से में एक कपड़ा भिगोकर उस थोड़े से जल से ही उन्होंने अपने पाँव धो लिये और अपने महनीय बुद्धिबल से अनेक आश्चर्य करानेवाले कुमारने उसमें से भी कुछ जल बचाकर कुमारी के पास भेज दिया ॥६०-६२।।
अत्यासक्ततया रूपं हृतमानसपद्मया। निवेशितोऽतर्भवनं तया सोऽनंगसत्प्रभः ।। ६३ ।। तयाऽभाणि शुभाधीश भोक्तव्यं मम मंदिरे । प्राधूर्णो भव सत्कांत प्रसीदैतत्कृते प्रभो ॥ १४ ॥ अस्मद्देवप्रसादाद्यै प्रेषितोऽसित्वं महामनाः । प्राधूर्णीभव सत्कुत्य कृपां मे वांछितार्थदः ।। ६५ ।। दिष्टया स्वजनसंयोगो जायते भुवनत्रये । प्राधूर्णयति तं प्राप्य यो न देवेन वंचितः ।। ६६ ।। अतः प्रसीद भोज्याय करोमीत्याग्रहं शुभ । इत्यादर सुवाक्यानि श्रुत्वाऽवोचन्नृपात्मजः ।। १७॥
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