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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
कोविदे चारुलक्षणे ।
निपुणाश्रूयसे लोके बाले व्रतं मया च द्येत्थं शृणु शुभांगिके ॥ ६८ ॥
कुमार के इस चातुर्य को अपनी आँखों से देख कुमारी नन्दश्री से चुप न रहा गया वह एकदम कहने लगी- अहा जैसाकि कौशल एवं उच्च दर्जे का पांडित्य कुमार श्रेणिक में है वैसाकि कौशल पांडित्य अन्यत्र नहीं । तथा ऐसा कहती - कहती अपने रूप से लक्ष्मी को भी नीचे करनेवाली, कुमार के गुणों पर अतिशय मुग्ध, कुमारी नन्दश्री ने कामदेव से भी अति मनोहर, कुमार श्रेणिक को भीतर घर में जाकर ठहरा दिया और विनयपूर्वक यह निवेदन भी किया कि हे महाभाग ! कृपाकर आज आप मेरे मंदिर में ही भोजन करें । हे उत्तम कांति को धारण करनेवाले प्रभो ! आज आप मेरे ही अतिथि बनें। मुझ पर प्रसन्न होइये । आर्यं प्राज्ञवर हमारे अत्यंत शुभ भाग्य के उदय से आपका यहाँ पधारना हुआ है । हे मेरी समस्त अभिलाषाओं के कल्पद्रुम ! आप मेरे अतिथि बनकर मुझ पर शीघ्र कृपा करें। संसार में बड़े भाग्य के उदय से इष्टजनों का संयोग होता है । जो मनुष्य अत्यंत दुर्लभ इष्टजन को पाकर भी उनकी भली प्रकार सेवा सत्कार नहीं करते उन्हें भाग्यहीन समझना चाहिए इसलिए हे पुण्यात्मन् ! भोजन के लिए मेरे ऊपर आप प्रसन्न होवें मैं आपसे भोजन के लिए आदरपूर्वक आग्रह कर रही हूँ ।। ६३-६८ ।।
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मद्धस्ते तंडुला रम्या वर्त्तते तैः कृत्वा भोजनं रम्यं दधिदुग्ध हविः पूर्ण सरसं स्वादु संपूर्ण
यो मे दत्ते मया बाले भुज्यते नान्यथा पुनः ।
ततः सा विस्मिता प्राह देहि मे तंडुलान्वरान् ॥१०१॥
द्विकषोडश । नानापक्वान्नसंयुतं ॥ ६६ ॥ नानाव्यंजनमुत्कटं । पूपादिपरिमंडितम् ॥ १०० ॥
ततश्चूर्णं विधायोच्चैश्चक्र साऽदायपूपकान् । निपुणादिमती हस्ते ददौ विक्रयहेतवे ।।१०२।।
कुमारी के ऐसे अतिशय आदरपूर्ण वचन सुन कुमार श्रेणिक ने अपनी मधुर वाणी से कहा, सुभगे ! संसार में तू अति चतुर सुनी जाती है। हे उत्तम लक्षणों को धारण करनेवाली पंडिते ! हेब ! तथा हे मनोहारांगी ! मैं भोजन जब करूँगा जब मेरी प्रतिज्ञानुसार भोजन बनेगा । वह मेरी प्रतिज्ञा यही है मेरे हाथ में ये बत्तीस चावल हैं इन बत्तीस चावलों से भाँति-भाँति के पके हुए अन्न से मनोहर भोजन बनाकर, दूध, दही, हवि आदि से परिपूर्ण, और भी अनेक प्रकार के व्यंजनोंकरयुक्त, सरस, स्वादिष्ट, पूआ आदि पदार्थ सहित, उत्तम भोजन जो मुझे खिलावेगा उसी के यहाँ मैं भोजन करूंगा दूसरी जगह नहीं ॥६९ - १०२ ॥
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