________________
१३१
श्रेणिक पुराणम्
सुने । मारे भय के उसका शरीर थर्राने लगा । पुत्र के टुकड़े सुन उसके नेत्रों से अविरल अश्रुओं की धारा बहने लगी । उसने शीघ्र ही विनयपूर्वक कुमार से कहा
महाभाग कुमार ! इस दीन बालक के आप टुकड़े न करें आप यह बालक वसुदत्ता को दे दें। यह बालक मेरा नहीं वसुदत्ता का ही है । वसुदत्ता का इसमें अधिक स्नेह है, बालक की खास माता वसुमित्रा के ऐसे वचन सुन कुमार ने चट जान लिया कि इस बालक की माँ वसुमित्रा ही है । तथा समस्त मनुष्यों के सामने यह बात प्रकट कर कुमार ने सेठानी वसुमित्रा को बालक दे दिया । और वसुदत्ता को राज्य से निकाल दिया। इस प्रकार अपने बुद्धिबल से नीतिपूर्वक राज्य करनेवाले अभयकुमार ने महाराज श्रेणिक का राज्य धर्म- राज्य बना दिया । और कुमार आनंद पूर्वक रहने लगे ।। ११-२४॥
रूपाढ्या चंद्रवक्त्रा सा तन्वंगी कठिनस्तनी । मृगेक्षणी शुभाकारा वर्त्तते कोकिलस्वना ॥ २५ ॥ वसंतः क्षत्रियः कश्चित्पुरे तत्रास्ति चोन्नतः । दयिता माधवी तस्य रूपादि गुणवर्जिता ॥ २६ ॥ एकदा स वसंतश्च प्रेक्ष्य भद्रां मनोहराम् । ताडयामास कामांधः स्मरबाणेन मोहितः ॥ २७ ॥ महादाहस्तदा जातस्तदंगे स्मरसंभवः । पद्मकर्पूरसज्जलैः ।। २८॥
चंदनद्रवशुभ्रांशु शाम्यति प्राप्नोत्यधिकतां
सुवस्त्रैश्च हारैर्मलयचंदनैः ।
दाहस्तै लेनेव धनंजयः ॥ २६ ॥
Jain Education International
न
।
इसी अवसर में अतिशय सच्चरित्र कोई बलभद्र नाम का गृहस्थ अयोध्या में निवास करता था। उसकी स्त्री भद्रा जो कि अतिशय रूपवती, चन्द्रमुखी, तन्वंगी, कठिनस्तनी, पिकवैनी अति मनोहरा थी । उसी नगर में अतिशय धनवान एक वसंत नाम का क्षत्रिय भी रहता था । उसकी स्त्री का नाम माधवी था, किन्तु वह कुरूपा अधिक थी । कदाचित् भद्रा अपने घर की छत पर खड़ी थी । दैवयोग से वसंत की दृष्टि भद्रा पर पड़ी। भद्रा की खूबसूरती देख वसंत पागल-सा हो गया। सारी होशियारी उसकी किनारा कर गई । कामदेव के तीक्ष्ण बाण वसंत के शरीर का भेदन करने लग गये । उसका दिनोंदिन कामजनित संताप बढ़ता ही चला गया । दाह की शांति के लिए उसने चन्दन - रस, चन्द्रकिरण, कमल कपूर, उत्तम शीतल जल आदि अनेक पदार्थों का सेवन किया । किन्तु उसके दाह की शांति किसी कदर कम न हुई । किन्तु जैसे अग्नि पर घृत डालने से उसकी ज्वाला और भी अधिक बढ़ती जाती है । उसी प्रकार शीतल वस्त्र फूल-माला मलय चंदन उस उल्लू वसंत का मन्मथ संताप दिनोंदिन बढ़ता ही चला गया । भद्रा के बिना उसे समस्त संसार शून्य-ही-शून्य प्रतीत होने लगा । भद्रा की चिंता में वसंत की सारी भूख-प्यास एक ओर किनारा कर गई ।। २५-२६।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org