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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
इत्यादि बहुसन्नीतिं कुर्वाणो बुद्धितः सुधीः । न्यायं प्रवर्त्तयामास नगरे मागधोद्भवः ॥ २३ ॥ अथान्यदा कुटुंबीचायोध्यायां वसते मुदा। बलभद्राभिधोन्ययी भद्रातस्य सुभामिनी ॥ २४ ॥
कदाचित् उन स्त्रियों के मन में न्याय-सभा में जाकर न्याय कराने की इच्छा हुई-उन्हें इस प्रकार दरबार में जाते देख फिर गाँव के बड़े-बड़े मनुष्य सेठ समुद्रदत्त के घर आये। उन्होंने फिर उन स्त्रियों को इस रीति से समझाया-देखो, तुम बड़े घराने की स्त्रियाँ हो। तुम्हारा कुल उत्तम है। तुम्हें इस बात के लिए दरबार में जाना नहीं चाहिए। यदि तुम दरबार में बिना विचारे चली जाओगी तो समस्त लोक तुम्हारी निंदा करेगा। तम्हें निर्लज्ज कहेगा एवं पश्चात तुम्हें बहुत-कुछ पछताना पड़ेगा किंतु उन मूर्खा स्त्रियों ने एक न मानी। निर्लज्ज हो, वे सीधी दरबार को चल दीं। और महाराज के सामने जो-कुछ उन्हें कहना था, साफ-साफ कह सुनाया।
स्त्रियों की यह विचित्र बात सुन महाराज श्रेणिक चकित रह गये। उन्होंने वास्तव में यह पुत्र किसका है? इस बात के जानने के लिए अनेक उपाय सोचे किन्तु कोई उपाय सफल न जान पड़ा। उन्होंने स्त्रियों को बहुत-कुछ समझाया। लड़ाई करने के लिए भी रोका। किन्तु उन स्त्रियों ने एक न मानी। महाराज ने जब स्त्रियों का हठ विशेष देखा। समझाने पर भी जब वे न समझीं। तब उन्होंने शीघ्र ही युवराज अभयकुमार को बुलाया। और जो हकीकत उन स्त्रियों की थी, सारी कह सुनायी।
महाराज के मुख से स्त्रियों का यह विचित्र विवाद सुन कुमार को भी दाँत तले उँगली दबानी पड़ी। किन्तु उपाय से अति कठिन काम भी अति सरल हो जाता है, यह समझ उन्होंने उपाय करना प्रारंभ कर दिया।
कुमार ने उन दोनों स्त्रियों को अपने पास बुलाया। प्रिय वचन कह उन्हें अधिक समझाने लगे। किन्तु वह पुत्र वास्तव में किसका था, स्त्रियों ने पता न लगने दिया। किसी समय कुमार ने एक-एक कर उन्हें एकांत में भी बुलाकर पूछा। किन्तु वे दोनों स्त्रियाँ पुत्र को अपना-अपना ही बतलाती रहीं। विवाद-शांति के लिए कुमार ने और भी अनेक उपाय किये। किन्तु फल कुछ भी नहीं निकला । अन्त में उनको अधिक गुस्सा आ गया। उन्होंने बालक शीघ्र ही जमीन पर रखवा लिया और अपने हाथ में एक तलवार ले, उसे बालक के पेट पर रख कुमार ने स्त्रियों से कहास्त्रियो ! आप घबराइयें नहीं, मैं अभी इस बालक के दो टुकड़े कर आपका फैसला किये देता हूँ। आप एक-एक टुकड़ा ले अपने घर चली जायें।
मातृस्नेह से बढ़कर दुनिया में स्नेह नहीं। चाहे पुत्र कुपुत्र हो जाए, माता कुमाता नहीं होती। पुत्र भले ही उनके लिए किसी काम का न हो। माता कभी भी उसका अनिष्ट चिंतन नहीं करती। सदा माता का विचार यही रहता है। चाहे मेरा पुत्र कुछ भी न करे। किन्तु मेरी आँखां के सामने प्रति समय बना रहे। इसलिए जिस समय सेठानी वसुमित्रा ने अभयकुमार के वचन
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