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________________ श्रेणिक पुराणम् अविचार्य प्रदोषादिदानं युक्तं न वा वणिक् । सोऽवादीन्नैव नाथेत्थं युक्तं च विपरीक्षतं ॥२७२।। उसी नगरी में कोई जिनदत्त नाम का सेठ निवास करता था जिनदत्त समस्त वणिकों का सरदार और धर्मात्मा था। जिनदत्त की प्रिय भार्या सेठानी जिनमती थी। जिनमती परम धर्मात्मा थी। शीलादि उत्तमोत्तम गुणों की भंडार थी और अति रूपवती थी। पतिभक्ता एवं दान आदि उत्तमोत्तम कार्यों में अपना चित्त लगाने वाली थी। सेठ जिनदत्त और जिनमती आनन्द से रहते थे। अचानक ही जिनमती के अशुभ कर्म का उदय प्रकट हो गया। उस विचारी को लोग कहने लगे कि यह व्यभिचारिणी है। निरन्तर परपुरुषों के यहाँ गमन करती है इसलिये वह मन में अतिशय दुःखित होने लगी। उसे अति दुःखी देख कई एक पुरुष उसके यहाँ आये और कहने लगे जिनमती ! यदि तुझे इस बात का विश्वास है कि मैं व्यभिचारिणी नहीं हूँ तो तू एक काम कर तपा हुआ लोहे का पिंड अपने हाथ पर रख। यदि तू व्यभिचारिणी होगी तो तू जल जायेगी नहीं तो नहीं। नगर निवासियों की बात जिनमती ने मान ली। किसी दिन वह सर्वजनों के सामने अपने हाथ में तपा हुआ लोहे का पिंड लेना ही चाहती थी कि अचानक ही वह भद्र नाम का बैल भी वहाँ आ गया। वह सब समाचार पहले से ही सुन चुका था इसलिये आते ही उसने तप्त लोहे का पिंड अपने दाँतों में दबा लिया। बहुत काल मुख में रखने पर वह जरा भी न जला एवं सभी को प्रकट रीति से यह बात बतला दी कि ब्राह्मण सोम शर्मा का बालक मैंने नहीं मारा । मैं सर्वथा निर्दोष हूँ। भद्रक की यह चेष्टा देख नगर निवासी मनुष्यों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कुछ दिन पहले जो वे बिना विचारे भद्रक को दोषी मान चुके थे वही भद्रक अब उनकी दृष्टि में निर्दोष बन गया। अब वे भद्रक की बार-बार तारीफ करने लगे। उनके मुख से उस समय जयजयकार शब्द निकले। तथा जिस प्रकार भद्रक ने उस प्रकार का काम कर अपनी निर्दोषता का परिचय दिया था। जिनमती ने भी उसी प्रकार दिया बेधड़क उसने तप्त पिंड को अपनी हथेली पर रख लिया जब उसका हाथ न जला तो उसने भी यह प्रकट रीति से बतला दिया कि मैं व्यभिचारिणी नहीं हूँ। मैंने आज तक पर-पुरुष का मुंह नहीं देखा है। मैं अपने पति की सेवा में ही सदा उद्धत रहती हैं। और उसी को देव समझती हैं। जिससे सब लोग उसकी मुक्त कंठ से तारीफ करने लगे और उसकी आत्मा को भी शांति मिली। इसलिये जिनदत्त ! तुम्हीं बताओ भद्रक और जिनमती पर जो दोषारोपण किया गया था वह सत्य था या असत्य ? जिनदत्त ने कहा कृपानाथ ! वह दोषारोपण सर्वथा अनुचित था। बिना विचारे किसी को भी दोष नहीं देना चाहिये जो लोग ऐसा काम करते हैं वे नराधम समझे जाते हैं। दीनबन्धो ! मैं आपकी कथा सुन चुका अब आप कृपया मेरी भी कथा सुनें ॥२६५-२७२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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