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पूरयन्महिषीवासं
स्तवनैजिनसद्गुणैः ।
विदधाति महारंभं जिनार्चायां च छद्मना ।। ७५ ।।
कदाचिन्नृत्यमत्यंतं कदाचिन्मंगलोद्गीति कदाचित्स्नपनारंभं महापुराण संपाठ
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कुमार का ऐसा अद्भुत वचनालाप एवं हुए । उन्होंने बिना सोचे-समझे ही कुमार को कुमार आदि का हद से ज्यादा सम्मान किया।
कारयामास
श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
कदाचित्स्तवनोत्सवम् । कदाचिद्वाद्यसंभ्रमं ॥ ७६ ॥
पठनं गद्यपद्ययोः ।
राजाधिराज ! हम लोग जौहरी बच्चे हैं । अनेक देशों में भ्रमण करते-करते यहाँ आ पहुँचे हैं । हमारी इच्छा है कि हम इस मनोहर महल में कुछ दिन ठहरें । हमारे पास मकान का कोई प्रबन्ध नहीं कृपा कर आप राजमंदिर के पास हमें किसी मकान में ठहरने के लिए आज्ञा दें ।
तदा
मागधः ।। ७७ ।।
अब क्या था ! राजा की आज्ञा पाते ही कुमार ने शीघ्र ही अपना सामान राजमंदिर के समीप किसी महल में मँगा लिया । एवं उस मकान में मनोहर चैत्यालय बनाकर आनंदपूर्वक बड़े समारोह से जिन- भगवान की पूजा करनी प्रारंभ कर दी। कभी तो कुमार बड़े-बड़े मनोहर स्तोत्रों में भगवान की स्तुति करने लगे । और कभी उन सेठों के साथ जिनेन्द्र भगवान की पूजा करनी प्रारंभ कर दी। कभी-कभी कुमार को पूजा करते ऐसा आनंद आ गया कि वे बनावटी तौर से भगवान के सामने नृत्य भी करने लगे। और कभी उत्तमोत्तम शब्द करनेवाले बाजे बजाना भी उन्होंने प्रारंभ कर दिया । एवं कभी-कभी कुमार त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र वर्णन करनेवाले पुराण बाँचने लगे । जिस समय वे समस्त भगवान की पूजा-स्तुति आदि कार्य करते थे । बराबर उनकी आवाज रनिवास में जाती थी । राजा की काफी स्त्रियाँ साफ रीति से इनके स्तोत्र आदि को सुनकर वे अपने मन-ही-मन इनकी भक्ति की अधिक तारीफ करती थी ।।७२-७७ ।।
विनय - व्यवहार देख राजा चेटक अति प्रसन्न राजमंदिर के पास रहने की आज्ञा दे दी । और
अन्यदा तादृशं श्रुत्वा ज्येष्ठाद्यातच्च वीक्षितुं । आजग्मुर्निजसाधर्म्यात्परमं
तास्तत्कृतां पूजां पुष्पचंद्रोपकाकीर्णां अवलोक्य महाप्रीत्या धन्या भवंत एवात्र
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तन्निकेतनं ॥ ७८ ॥
वरशोभासमन्विताम् । लसच्चामरघंटिकाम् ॥ ७६ ॥
भेणुस्तत्स प्रशंसनम् । जिनभक्तिपरायणाः ॥ ८० ॥
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