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________________ श्रेणिक पुराणम् वणिजो वणिजां नाथास्त्वत्समा जगतीतले । न दृष्टा जिनपूजायां दर्शने व्रतबोधके ।। ८१ ॥ को नीवृद्भवतां राजा को धर्मस्तस्य भूपतेः । किं वयः किं च सौभाग्यं काभूतिः केगुणाः पुनः ॥ ८२ ॥ किसी समय महाराज चेटक की ज्येष्ठा आदि पुत्रियों के मन में इस बात की इच्छा हुई कि चलो इनको जाकर देखें । ये बड़े भक्त जान पड़ते हैं। प्रतिदिन भाव-भक्ति से भगवान् की पूजा करते हैं । तथा ऐसा दृढ़ निश्चय कर वे अपनी सखियों के साथ किसी दिन अभयकुमार द्वारा बनाये हुए चैत्यालय में गईं। और वहाँ पर चमर, चाँदनी, झालर, घंटा आदि पदार्थों से शोभित चैत्यालय देख अति प्रसन्न हुईं । तथा कुमार आदि को भगवान की भक्ति में तत्पर देख कहने लगीं Jain Education International आप लोग श्री जिनेन्द्र देव की भक्ति भाव से पूजन एवं स्तुति करते हैं । इसलिए आप धन्य हैं। इस पृथ्वीतल पर आप लोगों के समान न तो कोई भक्त दीख पड़ता है और न ज्ञानवान एवं स्वरूपवान भी दीख पड़ता । कृपाकर आप कहें कौन तो आपका देश है ? कौन उस देश का राजा है ? वह किस धर्म का पालन करनेवाला है ? क्या उसकी वय है ? कैसी उसकी सौभाग्य विभूति है ? एवं कौन-कौन गुण उत्तमतया उसमें मौजूद हैं ? राजकन्याओं के मुख से ऐसे वचन सुन अभयकुमार ने मधुर वचन में उत्तर दिया-- ॥७८-६२ ॥ आकर्ण्यति जगौ शृणुध्वं मगधोदेशो धीमांस्तदाहरणहेतवे । ग्रामारामविमंडितः ॥ ८३ ॥ यत्र सर्वत्र देशेषु वर्त्तते गणनातीताः गृहाजैना सातकुंभ शोभा सर्वस्व संपूर्णे तत्र राजगृहं पुरं । विशालशालसंपूर्ण दीर्घखातिक्याशुभं ॥ ८५ ॥ परोत्तमाः । सुंभत्सुसातकुंभानामभ्र ंलिहाः प्रासादाः संति सर्वत्र यत्र मित्र समप्रभे ॥ ८६ ॥ तच्छास्ता श्रेणिको भाति लघीयान्वयसापुनः । गुणैर्गरीयान्विख्यातो ज्यायान् ज्येष्ठैः सुमाननात् ।। ८७ ।। सार्थवाहा वयं कन्या नानानीवृत्परिभ्रमाः । कलानां प्रेक्षिणो धीरानानाभूपाललोकिनः ॥ ८८ ॥ १५५ For Private & Personal Use Only यतीश्वराः । सुकुंभकाः ॥ ८४ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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