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श्रेणिक पुराणम्
जिनस्नपनपूजादीन् कुर्वंतो जिन बिंबके । सामायिकस्तवारूढा गुरुपंचजयोद्यताः ।। ६७ ॥ जैनत्वेन प्रसिद्धि ते गताः सर्वत्र निर्व. तिम् । क्रमेण प्रापुरानंदाद्विशालां नगरी पुराम् ।। ६८ ।। तद्बाह्योद्यानमासाद्य तस्थुः सर्वेनरोत्तमाः । जैनं धर्मं प्रकुर्वंतः पंचसत्यदपाठकाः ॥ ६६ ॥ ततोऽभयकुमारोऽसौ नानारत्नाद्युपायनम् । आदाय सज्जनैः साकं जगाम नृपसंसदि ॥ ७० ॥ प्रमुच्य प्राभृतं धीमान् प्रणम्य संभाष्य पेशलैर्वाक्यै स्तोषयामास
नृपचेटकं । भूपति ॥ ७१ ॥
मायाचारी संसार में विचित्र पदार्थ है । जिस मनुष्य पर इसकी कृपा हो जाती है । उसके लिए संसार में बड़े से बड़ा अहित करने में भी सुलभ हो जाता है । मायाचारी निर्भय हो चट अनर्थं कर बैठता है । कुमार ने ज्योंही राजगृह नगर छोड़ा। माया के वे भी बड़े भारी सेवक हो गये । मार्ग में जिस नगर को वे बड़ा नगर देखें फौरन वहाँ ठहर जावें । और अन्य सेठों के साथ कुमार भली प्रकार भगवान की पूजा करें। एवं त्रिकाल सामायिक और पंच परमेष्ठी स्तोत्र का पाठ भी करें। क्या मजाल थी जो कोई ज़रा भी भेद जान जाए ? इस प्रकार समस्त पृथ्वी मंडल पर अपने जैनत्व की प्रसिद्धि करते हुए कुमार कुछ दिन बाद विशाला नगरी में जा पहुँचे । और वहाँ के किसी बाग में ठहरकर खूब जोर-शोर से जिनेन्द्र भगवान के पूजा-माहात्म्य को प्रकट करने लगे ।
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कुछ समय बाग में आराम कर कुमार ने उत्तमोत्तम रत्नों को चुना। और कुछ जैन सेठों को लेकर वे शीघ्र ही राजा चेटक की सभा में गये । महाराज चेटक की सभा में प्रवेश कर कुमार ने राजा को विनय-भाव से नमस्कार किया । तथा उनके सामने भेंट रखकर, उनके साथ मधुरमधुर वचनालाप कर अपने को जैनी प्रकट करते हुए कुमार ने प्रार्थना की ।। ६७-७१ ।।
जपन्यं च नमस्कारस्तस्थौ भूपस्य कुशलप्रश्नपूर्वं चान्योन्यं ततोऽभयो नृपाधीशं संतुष्टं वाससंकृते । ययाचे नृपगेहस्य समीपं वरमंदिरम् ।। ७३ ॥ अदा पो गृहं तस्मै तत्र तस्थौ च मागधः । जिनाच पंडितैः साकं करोतिच्छद्मसंगतः ॥ ७४ ॥
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सन्निधि | भेणतुरुन्नतौ ॥ ७२ ॥
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