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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
यथासाध्य उसके दूर करने का प्रयत्न करूँगा। अभयकुमार के ऐसे विनय-भरे वचन सुन प्रथम तो महाराज ने कुछ भी जवाब नहीं दिया। वे सर्वथा चुपकी साध गये। किंतु जब उन्होंने कुमार का आग्रह-विशेष देखा तब वे कहने लगे ॥५५-६०॥
ततो यथा कथंचिच्च भूपेनाऽभाणि वृत्तकम् । सर्वं पुत्रानयाराज्यं विना निः फलतांगतं ।। ६१ ।। निरर्थं जीवितं मेने सर्व शून्यं बभाति च।। चंचलत्वं समापन्नं स्वांतं नेत्रं च चंचलं ।। ६२॥ दुश्चलं नृपतिं वीक्ष्य पितृभक्त्या बभाण च । चितां विधेहि मा राजन् विदधामि समीहितं ।। ६३ ॥ समुद्धीर्येति भूपालं तत्कार्यकरणोद्यतः । पुरस्थितान् समाहूय जैनान् व्यापार सिद्धये ॥ ६४ ॥ स्वयं सार्थाधिपोभूत्वा जैनलोका च मंडितः । चचाल संपदा साकं बलीवश्च घोटकैः ।। ६५ ॥ नाना सद्वस्तु संपन्न र्वाणिज्यायाभयस्तदा । निर्ययौ सिंधु देशं तं वृद्धबुद्धिविराजितः ।। ६६ ॥
प्यारे पुत्र ! चित्रकार भरत ने मुझे चेलना का यह चित्र दिया है। जिस समय से मैंने चेलना की तस्वीर देखी है मेरा चित्त अति चंचल हो गया है। इसके बिना यह विशाल राज्य भी मझे जीर्ण तण सरीखा जान पड रहा है। इसके पिता की यह कडी प्रतिज्ञा है कि सिवाय जैन राजा के दूसरे को कन्या न देना, इसलिए इसकी प्राप्ति मुझे अति कठिन जान पड़ती है। अब इस कन्या की प्राप्ति के लिए प्रयत्न शीघ्र होना चाहिए। बिना इसके मेरा सुखी होना कठिन है।
पिताजी के ऐसे वचन सुन कुमार ने कहा-माननीय पिताजी ! इस जरा-सी बात के लिए आप इतने अधीर न हों। मैं अभी इसके लिए उपाय करता हूँ। यह कौन बड़ी बात है ? तथा महाराज को इस प्रकार आश्वासन दे कुमार ने शीघ्र ही पुर के बड़े-बड़े जैनी श्रेष्ठी बुलाये। और उनसे अपने साथ चलने के लिए कहा। तथा कुमार की आज्ञानुसार वे सब कुमार के साथ चलने के लिए राजी भी हो गये।
जब कुमार ने यह देखा कि सब श्रेष्ठी मेरे साथ चलने के लिए तैयार हैं। उन्होंने शीघ्र ही महाराज श्रेणिक से जाने के लिए आज्ञा माँगी। तथा हीरा, पन्ना, मोती, माणिक आदि जवाहरात और अन्य-अन्य उपयोगी पदार्थ लेकर एवं समस्त सेठों के मुखिया सेठी बनकर अभयकुमार ने शीघ्र ही सिंधु देश की ओर प्रयाण कर दिया ॥६१-६६॥
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