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श्रेणिक पुराणम्
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बलैरशक्यो युद्धे च किं कर्त्तव्यं मयात्र वै। तर्कयन्निति धून्वन्स शिरोवाष्पं विमुंचयन् ॥ ५६ ।। तदेत्थं जनकं वीक्ष्य कुमारोऽभयनामभाक् । प्रोवाच राजराजेश ! का चिंतास्ति तवेदृशी ।। ५७ ॥ तवाधीनाः जनाः सर्वे नप आज्ञाविधायिनः ।। कोशाश्वदंतिपत्तीनां स्वामित्वं प्रचुरं त्वयि ॥ ५८ ।। अंगनारंगसंलीनाः पुत्रा दासेयसन्निभाः । शत्रवो मित्रतापन्ना वर्त्तते तव शासने ॥ ५६ ॥ चिताहेतुं नराधीश निर्देश्यं मे त्वयाधुना । भविष्यति यथाकार्यं तथा कुर्मो निबंधनं ॥ ६० ॥
भरत के ऐसे वचन सुन महाराज, विचार-सागर में गोता मारने लगे। ये सोचने लगेयदि राजा चेटक का यह प्रण है कि जैन राजा के अतिरिक्त दूसरे को कन्या न देना तो यह कन्या हमें मिलना कठिन है क्योंकि हम जैन नहीं। यदि बुद्ध मार्ग से इसके साथ जबरन विवाह किया जाए सो भी सर्वथा अनुचित एवं नीति-विरुद्ध है। और विवाह इसके साथ करना जरूरी है क्योंकि ऐसी सुंदरी स्त्री दूसरी जगह मिलनेवाली नहीं। किंतु किस उपाय से यह कन्या मिलेगी? यह कुछ ध्यान में नहीं आता। तथा ऐसा अपने मन में विचार करते-करते महाराज बेहोश हो गये। चेलना के बिना समस्त जगत उन्हें अंधकारमय प्रतीत होने लगा । यहाँ तक कि चेलना की प्राप्ति का कोई उपाय न समझ उन्होंने अपना मस्तक तक भी धुन डाला।
महाराज को इस प्रकार चिंता-सागर में मग्न एवं दुःखित सुन अभय कुमार उनके पास आये। महाराज की विचित्र दशा देख अभयकुमार भी चकित रह गये। कुछ समय बाद उन्होंने महाराज से नम्रतापूर्वक निवेदन किया
पूज्य पिताजी ! मैं आपका चित्त चिंता में अधिक व्यथित देख रहा हूँ। मुझे चिंता का कोई भी कारण नजर नहीं आता। पूज्यपाद ! प्रजा की ओर से आपको चिंता हो नहीं सकती। क्योंकि प्रजा आपके आधीन और भली प्रकार आज्ञापालन करनेवाली है। कोषबल एवं सैन्यबल भी आपको चिंतित नहीं बना सकता क्योंकि न आपके खजाना कम है और न सेना ही। किसी शत्रु के लिए चिंता करना आपको अनुचित है क्योंकि आपका कोई भी शत्रु नज़र नहीं आता। आपके शत्रु भी मित्र हो रहे हैं। भो पूज्यवर ! आपकी स्त्रियाँ भी एक-से-एक उत्तम हैं। पुत्र आपकी आज्ञा के भली प्रकार पालक और दास हैं इसलिए स्त्री-पुत्रों की ओर से भी आपका चित्त चिंतित नहीं हो सकता। इनके अतिरिक्त और कोई चिंता का कारण प्रतीत नहीं होता फिर आप क्यों ऐसे दुःखित हो रहे हैं। कृपाकर शीघ्र ही अपनी चिंता का कारण मुझे कहें। मैं भी
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