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________________ १२ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् केचिदच्युतपर्यन्तं सस्त्रियो व्रतभूषिताः । श्रावकाणां च गच्छन्ति पुण्यस्य फलमीद्दश्यम् ॥ १४ ॥ केचित्रिविधपात्रेभ्यो दत्वादानं सुरवार्थिनः । अटन्ति भोग भूस्थानं यावज्जीव सुखांकिताम् ।। ६५ ।। दानेस्पर्द्धा चिकीर्षन्ति पूजायां च विशेषतः । जनायत्र न बोधेषु ज्ञान भावाश्रितां नराः ॥ ६६ ॥ प्रासादा यत्र शोभन्ते जिनानां भूभजां पुनः । जय कोला हला कीर्णाः ससभ्याः फल दायिनः ॥ ६७ ।। इसी मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में जहाँ उत्तम धान्य उपजाते हैं मनोहर, अनेक प्रकार की विद्याओं से पूर्ण, और सुखों का स्थान भरतक्षेत्र है। यह भरतक्षेत्र साक्षात् धनुष्य के समान है क्योंकि जिस प्रकार धनुष्य में बाण होते हैं उसी प्रकार गंगा सिन्धु दो नदीरूपी बाण हैं। इस भरतक्षेत्र के मध्य भाग में रूपाचल नाम का विशाल पर्वत है जो चारों ओर से सिन्धु नदी से वेष्टित है और जिसकी दोनों श्रेणी सदा रहनेवाले विद्याधरों से भरी हुई हैं। यह भरतक्षेत्र अत्यंत पवित्र है और गंगा सिन्धु नाम की दो नदियों से तथा विजयाद्ध पर्वत से छह खण्डों में विभक्त अतिशय शोभा को धारण करता है ।।५६-६२।। इसी भरतक्षेत्र में तीन खण्डों से व्याप्त, पुण्यात्मा भव्य जीवों से पूर्ण, दक्षिण भाग में आर्य खण्ड शोभित है ।।६३।। इस दैदीप्यमान आर्य खण्ड में सुख तथा दुःख से व्याप्त, पुण्य पापरूपी फल को धारण करनेवाला, सुखमा सुखमादि छह कालों का समूह सदा प्रवर्तमान रहता है।६४।। इन छह प्रकार के कालों में प्रथम काल सुखमा सुखमा हैं, जो कि शरीर आहार आदिक से देवकुरु भोग भूमि के समान है॥६५॥ दूसरा काल सुखमा नाम का है जिसमें मनुष्य के शरीर की ऊँचाई दो कोश के प्रमाण की रहती है, यह काल, स्थिति आहार आदिक से हरि वर्ष क्षेत्र के समान है तथा शुभ है ॥६६॥ तथा तीसरा काल दुखमा सुखमा नामक है, इसमें मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई एक कोश के प्रमाण है। इसकी रचना से जघन्य भोग भूमि के समान होती है । ६७॥ चौथा काल दुखमा सुखमा है जिसकी रचना विदेह क्षेत्र के समान होती है, तीर्थंकर चक्रवर्ती बलभद्र नारायण आदि महापुरुषों की उत्पत्ति भी इसी काल में होती है ॥६८॥ पाँचवाँ काल दुखमा है जिसमें पुण्य तथा पाप से शुभाशुभ गति की प्राप्ति होती है, यह दुःखों का भंडार है तथा इस पंचम काल में मनुष्यों की आयु, शरीर, धर्म सब कम हो जाते हैं ।।६९।। इसके पश्चात् धर्म कर रहित, पापस्वरूप, दुष्ट मनुष्यों से व्याप्त, और थोड़ी आयुवाले जीवों सहित, छठवाँ दुखम दुखम काल आता है.॥७०॥ इस प्रकार मोक्ष मार्ग साधन करने के लिए दीपक के समान, नाना प्रकार की शुभ क्रियाओं सहित, और पुण्य के स्थान, इस आर्य खण्ड में उक्त प्रकार के काल सदा प्रवर्तमान रहते हैं ॥७१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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