SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रणिक पुराणम् तीव्र कलोलें मौजूद हैं । समुद्र में जिस प्रकार कीचड़ होती है संसाररूपी समुद्र में भी पापरूपी कीचड़ है। जैसे समुद्र तटों से भयंकर होता है उसी प्रकार संसाररूपी समुद्र भी मृत्युरूपी तट से भयंकर है। समुद्र में जैसे वड़वानल होता है संसार समुद्र में भी चतुर्गतिरूप वड़वानल है। समुद्र में जैसे कछुवे होते हैं संसाररूपी समुद्र में भी वेदनारूपी कछुवे मौजूद हैं। संसार में जैसे बाल के ढेर होते हैं संसाररूपी समुद्र में भी दरिद्रतारूपी बालू के ढेर मौजूद हैं। एवं समुद्र जैसे अनेक नदियों के प्रवाहों से पूर्ण रहता है संसार समुद्र भी उसी प्रकार अनेक प्रकार के आस्रवों से पूर्ण है। महनीय पिताजी ! बिना धर्मरूपी जहाज के इस संसार से पार करने वाला कोई नहीं। यह देह सप्तधातुमय है। नाक, आँख आदि नौ द्वारों से सदा मल निकलता रहता है। यह पाप कर्ममय पाप का उत्पादक और कल्याण का निवारक है। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो इन्द्रियों के समूह से दैदीप्यमान, मन के व्यापार से परिपूर्ण, विष्ट आदि मलों से मंडित इस शरीर से प्रीति करेगा? पूज्य पिताजी ! ज्यों-ज्यों इन भोगों का भोग और सेवन किया जाता है त्योंत्यों ये तृप्ति को तो नहीं करते किन्तु घी की आहुति से जैसे अग्नि प्रवृद्ध होती चली जाती है। वैसे ही भोगोपभोग भी प्रवृद्ध होते जाते हैं। काष्ठ से जैसे अग्नि की तृप्ति नहीं होती उसी प्रकार जिन मनुष्यों की तृप्ति स्वर्ग भोग भोगने से भी नहीं हुई है। उन मनुष्यों की तृप्ति थोड़ी-सी स्त्रियों के संपर्क से कैसे हो सकती है ? संसार को इस प्रकार क्षण-भंगुर समझ पूज्य पिताजी ! मुझ पर प्रसन्न हूजिये और मनुष्यों को अनेक कल्याण देने वाली समस्या के लिए आज्ञा दीजिये। पूज्यपाद ! आपकी कृपा से आज तक मैं राज्य सम्बन्धो सुख और स्त्रीजन्य सुख खूब भोग चुका। अब मैं इससे विमुख होना चाहता हूँ। पुत्र के ऐसे वचन सुन राजा श्रेणिक ने अपने कान बन्द कर लिये। उनके चित्त पर भारी आघात पहुँचा मूछित हो वे शीघ्र ही जमीन पर गिर गये और उनकी चेतना थोड़ी देर के लिए एक ओर किनारा कर गई। महाराज श्रेणिक की ऐसी विचेष्टा देख उन्हें शीघ्र सचेतन किया गया। अब वे बिल्कुल होश में आ गये तो कहने लगे प्रिय पुत्र ! तूने यह क्या कहा? तेरा यह कथन मुझे अनेक भय प्रदान करने वाला है। तेरे बिना नियम से यह समस्त राज्य शून्य हो जायेगा। मैं राज्य करूँ और तू तप करे यह सर्वथा अयोग्य है। जिन भगवान के समीप जाकर तुझे चौथेपन में तप धारण करना चाहिये इस समय तेरी उम्र निहायत छोटी है । कहाँ तो तेरा रूप ? कहाँ तेरा सौभाग्य ! कहाँ राज्य योग्य तेरी क्रीड़ा? कहाँ तेरा लावण्य तथा कहाँ तेरी युक्तियुक्त वाणी और कोमल देह ? तेरी बुद्धि इस समय असाधारण है । बलवानपना, वीरता, वीरमान्यता जैसी तुझमें है वैसी किसी में नहीं। प्रिय पुत्र ! अनेक राजा और सामन्तों से सेवनीय पुण्यवानों द्वारा प्राप्त करने योग्य यह राज्य-भार तुम ग्रहण करो और तप का हट छोड़ो। पिताजी के ऐसे मोहपरिपूर्ण वचन सुन अभय कुमार ने कहा ॥१-२०॥ तदावादीत्स भो तात गदिता जनका जनैः । जनयंति शुभं शर्म ते तत्सर्वं तपोबलात् ॥ २१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy