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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
त्वत्प्रसादान्मया
नृप ।
एतावत्कालपर्यंत अभोज राजकीयं च शर्मस्त्रीवृंद संभवं ।। १३ ।। इत्याकर्ण्य वचो भूभृदुःसहं कर्णयोर्द्वयोः । मुमोह धरिणीं प्राप्तो बभूवेव विचेतनः ॥ १४ ॥ ततः शीतोपचाराद्यैः प्रापितश्चेतनां नृपः । बभाषे वचनं पुत्र ! किमुक्तं मम भीतिदम् ॥ १५ ॥ विना त्वया खिलं राज्यमुद्वसं तनु संभव । मयि राज्यं प्रकुर्वाणेन कर्त्तव्यं त्वया तपः ॥ १६ ॥ पश्चात् चतुर्थे वयसि तपो ग्राह्यं जिनांतिके । इदानीं वयसा नूनं लघीयान् नृपपुंगव ।। १७ ।। क्व रूपं क्व च सौभाग्यं क्व लीला राजसंभवा । क्व लावण्यं पक्व वामित्वं तव देहनिर्भरं ।। १८ ।। असाधारा मनीषा स्फुटं बलिभिः स्रुतम् । वीरत्वं वीरसामान्यं त्वयि वर्त्तेत देहज ॥ १६ ॥ राजकीयं नृपादिभिः । त्यजत्वं तप आग्रहं ॥ २० ॥
गृहाणेदं शुभं भारं सेव्यं पुण्यवतां प्राप्यं
कदाचित् महाराज सानन्द सभा में विराजमान थे । समस्त भयों से रहित संसार की वास्तविक स्थिति जानने वाले अभय कुमार सभा में आये। उन्होंने भक्तिपूर्वक महाराज को नमस्कार किया और सर्वज्ञभाषित अनेक भेद-प्रभेदयुक्त वह समस्त सभ्यों के सामने वास्तविक तत्वों का उपदेश करने लगा । तत्वों का व्याख्यान करते-करते जब सब लोगों की दृष्टि तत्वों की ओर झुक गई तो वह अवसर पाकर अपनी पूर्वभवावली के स्मरण से चित्त अतिशय खिन्न हो अपने पिताजी से कहने लगा
पूज्य पिताजी ! इस संसार से अनेक पुरुष चले गये । युग के आदि में वृषभ आदि तीर्थंकर भरत आदि चक्रवर्ती भी कूच कर गये ।
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कृपानाथ ! यह संसार एक प्रकार का विशाल समुद्र है क्योंकि समुद्र में जैसी मछलियाँ रहती हैं संसाररूपी समुद्र में भी जन्मरूपी मछलियाँ हैं । समुद्र में जैसे भँवर पड़ते हैं संसाररूपी समुद्र में भी दुःखरूपी भँवर हैं । समुद्र में जैसे कलोलें होती हैं । संसार समुद्र में भी ज़रारूपी
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