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श्रेणिक पुराणम्
सोsवादीन्माम भो श्रेष्ठिन्मे हि साकं मयाद्रुतं । नंदिग्रामाधिपो विप्रो यत्रास्ते तत्र निश्चितं ।। १२८ || अटावो भुक्तिसंसिद्धया इत्युदीर्य गिरा शुभा । श्रेणिकेंद्रादिदत्ततो गतौ विप्रस्य सन्निधिं ॥ १२६ ॥ भो विप्र ! नंदिनाथ त्वमावाभ्यां देहि वल्लभं । त्वमसि राजसे वाढ्य उपश्रेणिकमानभृत् ।। १३०॥ भोजनार्थं सुधान्यं चा यच्छ विप्र वरं द्रुतम् । आवां राजनरौ ज्ञेयौ राजकार्य विचक्षणौ ॥ १३१ ॥ राजकार्यस्य संसिद्धयै वदंतावत्र चागतौ ।
त्वमसि राज्यकार्यार्थी
राजदत्तपुरोपभुग् ।। १३२॥
आकर्ण्य वचनं विप्रः अवादीदिति कोपाढ्यः
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कोपारुणितलोचनः ।
परवंचनलालसः ॥ १३३॥
श्रेष्ठिन् ! आप यहाँ न बैठिये, मेरे साथ आइये, यहाँ पर कोई नन्दिग्राम का स्वामी ब्राह्मण निश्चय से रहता है। हम दोनों भोजन की प्राप्ति के लिए भ्रमण कर रहे हैं आइये उसके पास चलें वह हमें अवश्य भोजनादि देगा । ऐसा कहकर कुमार श्रेणिक और सेठी इन्द्रदत्त दोनों उस ब्राह्मण के पास गये और उससे कहा कि
हे विप्र नन्दिनाथ तू महाराज उपश्रेणिक के सम्मान का पात्र राज्य सेवा के योग्य है और तू राज्य कार्य के लिए महाराज द्वारा दिये हुए माल का मालिक है इसलिए हम दोनों को पीने के लिए कुछ जल और भोजन के लिए कुछ धान्य दे क्योंकि राज्य के कार्य में चतुर हम दोनों राजदूत हैं और भ्रमण करते-करते यहाँ पर आ पहुँचे हैं। कुमार श्रेणिक के इस प्रकार वचन सुनकर क्रोध से नेत्रों को लाल करता हुआ एवं सदा पर के ठगने में तत्पर उस ब्राह्मण ने क्रोध से उत्तर दिया
।।१२५-१३३।।
को राजा कौ युवामत्रागतौ केन च हेतुना । जलादिकं न दास्यामि राज्ञोऽन्यस्य च का कथा ॥ १३४॥
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गच्छतं गच्छतंक्षिप्रं युवा मम मंदिरात् । न स्थातव्यं क्षणं राजपुरुषौ चेत्तर्हि मे किमु ॥ १३५ ॥ कोपकम्पितगात्रः स श्रेणिको वचनं जगौ । भो भिक्षुक दयाहीन पश्चाद्बुद्धे शुभातिग ॥ १३६॥
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