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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
(४) सिंहासन-रक्षा:
चतुर्थमिगितं विद्धि दह्यमाने पुरे वरे। सिंहासनमहाछत्रचामरादि
परिग्रहं ।। १७ ॥ परिगृह्य विनिर्गत्य पुराद्यः स्वयमस्तके ।
नियमात्तं विजानीहि महामुकुटबद्धकं ॥ १८ ॥ चौथा निमित्त यह समझिये-जिस समय नगर में आग लगे उस समय जो पुन सिंहासन छत्र, चंवर भादि पदार्थों को अपने सिर पर रखकर नगर से बाहर निकले, समझ लीजिए कि मुकुट का धारण करनेवाला वही राज्य का भोगनेवाला होगा ॥१७-१८।।
तथान्यच्च परिज्ञानं शृणु मागधनायक । मोदकैः खज्जकैश्चान्यः करंडकसमूहकं ॥ १६ ॥ पूरयित्वा मुखे मुद्रां कृत्वा बद्धवा तथा घटाः । जलैर्नवीनाः संपूर्य बद्धवक्त्रा मनोहराः ।। २० ।। भिन्ने भिन्ने गृहे रम्ये करंडकघटाः पुनः । स्थापनीयाः कुमारकः स्थापनीयो गृहे गृहे ।। २१ ॥ अनुद्घाट्य घटं रम्यं करंडकमनुत्तरं ।
पानीयं पीयते येनभुज्यतेऽन्नं स राज्यभाग् ॥ २२ ॥ हे महाराज! राज्य की प्राप्ति का पांचवाँ निमित्त यह भी है कि-थोड़े-से पिटारों को उत्तमोत्तम लड्डू तथा खाजे आदि मिष्ठान्नों से भरवाकर, उनके मुंह को अच्छी तरह से बंद कराकर और मुहर लगवाकर हरेक के घर में रखवा दीजिये तथा उन पिटारों के साथ शुद्ध निर्मल मधुर जल से पूर्ण एक-एक उत्तम घड़े को भी मुंह बंद कर उसी तरह प्रत्येक के घर में रखवा दीजिये फिर प्रत्येक कुमार को एक-एक घड़े में से पानी तथा एक-एक पिटारे में से लडड आदि के खाने की आज्ञा दीजिये । उनमें से जो कुमार जल से भरे हुए घड़े के मुख को खोले बिना ही पानी पी लेवे तथा पिटारे से बिना खोले ही लड्ड आदि पदार्थों को खा लेवे समझ लीजिये कि वही पुन राज्य का भोगनेवाला होगा ।।१६-२२॥
निमित्तपंचकं राजन् वर्त्ततेऽत्र विचारणा । विधातव्या त्वया धीमन् राज्यज्ञानस्यसिद्धये ।। २३ ।। इति श्रुत्वा महीपालो विससर्ज विशालधीः । नैमित्तिकं परीक्षाय चिंतयन्निति मानसे ॥ २४ ॥ अहो ! राज्यं मया दत्तंचिलातीसूनवे पुरा । निमित्तात्कस्य पुत्रस्य भविष्यति न वेम्यहं ॥ २५ ॥
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