________________
श्रेणिक पुराणम्
१०३
इधर ब्राह्मण तो ऐसा विचार करने लगे। उधर वेगतट में सेठी इन्द्रदत्त को यह पता लगा कि कुमार श्रेणिक अब मगध देश के महाराज बन गये हैं। शीघ्र ही वे नन्दश्री और अभयकुमार को लेकर राजगह की ओर चल दिये। और नन्दिग्राम के पास आकर ठहर गये। सेठी इन्द्रदत्त आदि तो भोजनादि कार्य में प्रवृत्त हो गये । और नवीन पदार्थों के देखने के अति प्रेमी अभयकुमार नन्दिग्राम देखने के लिए चल दिये। उन्हें आते देख परिवार के मनुष्यों ने बहुत-कुछ मनाही की! किन्तु अभयकुमार के ध्यान में एक न आई। शीघ्र ही नन्दिग्राम में प्रवेश कर दिया। मध्यनगर में पहुँचते ही देव से उनकी मुलाकात नन्दिनाथ से हो गई उसे चिंता से व्याकुल एवं म्लान देख अभयकुमार ने चट धर पूछा ॥५१-५४।।
ततो भूसुरनाथश्च संजगौ बचनं वरम् । मेषप्रस्थापनं चिताकारणं हरणं पुरः ॥ ५५ ।। तदाकाह तनयो मागधस्य मुदा हसन् । मा कुरुध्वं व्यथां विप्रा हरिष्याम्यसुखं तव ।। ५६ ।।
हे विप्रों के सरदार ! आपका मुख क्यों फीका हो रहा है ! आप किस उधेड़-बुन में लगे हुए हैं ! इस नगर में सर्वमनुष्य चिंताग्रस्त ही प्रतीत होते हैं यह क्या बात है ? अभयकुमार के ऐसे उत्तम वचन सुन, और वचनों से उसे बुद्धिमान भी जान, नन्दिनाथ ने विनम्र वचनों में उत्तर दिया।
__ महानुभाव ! राजगृह के स्वामी महाराज श्रेणिक ने एक बकरा हमारे पास भेजा है। उन्होंने यह कड़ी आज्ञा भी दी है कि नन्दिग्राम के निवासी विप्र इस बकरे को खूब खिलावें-पिलावें किंतु यह बकरा एक-सा ही रहे। न तो मोटा होने पावे और न लटने पावे। यदि यह बकरा लट गया अथवा पुष्ट हो गया तो नन्दिग्राम छीन लिया जायेगा। हे अभयकुमार ! महाराज की इस आज्ञा का पालन हमसे होना कठिन जान पड़ता है। इसलिए इस गाँव के निवासी हम सब ब्राह्मण चिंता से व्यग्र हो रहे हैं ।।५५-५६।।
इति संधार्य विप्रांस्तांश्चक्राणस्तदुपायकम् । स्तंभंतं द्वीपिनोर्मध्ये बंधयामासकोविदः ।। ५७ ॥ चारयन्विविधं भक्षं यदा स्थलः प्रपश्यति । तदा व्याघ्र कृशी स्याच्च भयात्पक्षावधि स्थितः ॥ ५८ ।। न स्थूलं न कृशं मेषं प्रेषयामास भूपतिम् । तादृशं तं नृपो वीक्ष्य विस्मितोऽभूत्स्वमानसे ।। ५६ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org