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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
दूंगा तो लोग मेरी निंदा करेंगे। मेरा राज्य भी अनीति-राज्य समझा जायेगा। इसलिए प्रथम ब्राह्मणों को दोषी सिद्ध कर देना चाहिए। पश्चात् उन्हें निकालने में कोई दोष नहीं। तथा महाराज ने ब्राह्मणों को दोषी बनाने के अनेक उपाय सोचे। उन सबमें प्रथम उपाय यह किया था कि एक बकरा मँगवाया और कई-एक चतुर सेवकों को बुलाकर एवं बकरा सौंपकर, यह आज्ञा दी। जाओ, इस बकरे को शीघ्र ही नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को दे दो। उनसे यह कहना कि यह बकरा महाराज श्रेणिक ने भेजा है। इसे खूब खिलाया-पिलाया जाय। किंतु इस बात पर ध्यान रहे। न तो यह दुबला होने पावे और न आबाद (मोटा) ही होवे। यदि वह लट गया या आबाद हो गया तो तुमसे नन्दिग्राम छीन लिया जायेगा। और तुम्हें उससे जुदा कर दिया जायेगा॥४४४८॥
किं कुर्मोऽत्र वयं विप्रा दुर्द्धरे कार्य एवहि । कृशः स्यादथवा पुष्ट: कथं तिष्ठति तादृशः ॥ ४६॥ इति चिताप्रपन्नास्ते यावत्तिष्ठति दुःखिताः । अथ वेणातटे श्रेष्ठी मत्वा राज्यं च भूपतेः ।। ५० ॥
महाराज के ऐसे आश्चर्यकारी वचन सुन सेवकों ने कुछ भी तीन-पाँच न की। वे बकरे को लेकर शीघ्र ही नन्दिग्राम की ओर चल दिये। तथा नन्दिग्राम में पहुँचकर बकरा ब्राह्मणों के सुपुर्द कर दिया। और जो कुछ महाराज का संदेशा था वह भी साफ-साफ कह सुनाया।
महाराज का यह विचित्र संदेशा सुन नन्दिग्राम के ब्राह्मणों के होश उड़ गये। वे अपने मन में विचार करने लगे। यह बला कहाँ से आ पड़ी। महाराज का तो हमसे कोई अपराध हुआ नहीं है। उन्होंने हमारे लिए ऐसा संदेशा क्योंकर भेज दिया? हे ईश्वर ! यह बात कटिन आ अटकी। कमती-बढ़ती खिलाने से या तो यह बकरा लट जायेगा या मोटा हो जायेगा। इसका एक-सा रहना असम्भव है। मालूम होता है अब हमारा अंत आ गया है ॥४६.५०॥
तुतोषाथेंद्रदत्तोऽसौ तद्धयानंदश्रिया सह । अभयादिकुमारेण चचाल सह संपदा ॥ ५१ ॥ ततः क्रमात्समासेदे नंदिग्रामं सवाडवं । तस्थौ भोजनसंसिद्धय श्रेष्ठी: श्रेष्ठः क्रियादिभिः ।। ५२ ॥ तदाभयकुमारश्च स्वजनैः परिवारितः । ईक्षणाय पुरं प्राप्तः ददर्शाखिलवाडवान् ॥ ५३ ।। चितापन्नं द्विजाधीशं तावद्वीक्ष्य बभाष सः । विप्र ! चिंता कुतश्चित्ते वर्त्तते देहदाहिका ।। ५४ ।।
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