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________________ श्रेणिक पुराणम् अनेक प्रकार के तोरणों से शोभित, नीली-पीलो आदि ध्वजाओं से सुशोभित, चित्त को हरण करनेवाले नाना प्रकार के चौकों से मण्डित, राजगृह नगर में प्रवेश किया ॥८१-८३॥ अहोपुण्यमहोपुण्यं पश्यतोत्तमतां गतं । क्व भूपतिर्महाधीरोऽटव्यां नि: सारणं क्वच ॥ ८४ ॥ क्वेयं कन्या शुभाकारा पूर्णचंद्राननाब्जिका । मृगाक्षी कमलारूपा पीनोन्नतपयोधरा ॥ ८५ ।। एतया सह संयोगः क्व प्राप्तोऽनेन पुण्यतः । भूपनिः सारणं मन्येऽहमेतत्कृत एव च ॥८६॥ विपदो यांति संपत्त्वं दुःखं सौख्यायते पुनः । पुण्यान्नृणां न संदेहोऽतः कार्य सुकृतं बुधैः ॥ ८७ ॥ राजगृह नगर के राजमार्ग में जाते हुए महाराज उपश्रेणिक को देखकर अनेक नगर निवासी अपने मन में इस प्रकार कल्पना करते कहते थे कि अहा पुण्य का माहात्म्य विचित्र है देखो कहाँ तो अत्यंत धीर-वीर महाराज उपश्रेणिक ? और कहाँ उत्तमांगी चन्द्रमुखी, मृगाक्षी, लक्ष्मी के समान अति मनोहर, स्थूल उन्नत, स्तनों से मण्डित, कन्या तिलकवती? कहाँ महाराज उपश्रेणिक का विशाल वन में गड्ढे में गिरना और निकलना? और कहाँ पीछे इस कन्या के साथ-साथ विवाह ? जान पड़ता है इस कन्या की प्राप्ति के लिए महाराज उपश्रेणिक को समस्त पुण्य मिलकर वहाँ ले गये थे? इसमें सन्देह नहीं जो मनुष्य पुण्यवान हैं उनके लिए विपत्ति भी सम्पत्तिस्वरूप और दुःख भी सुखस्वरूप हो जाता है। बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि वे सदा पुण्य का ही संचय करें ।।८४-८७।। इत्यादि शुभशंसीनी जनानां वचनानि च । शृण्वन् स मंदिरं प्राप्तः सजानिः सह संपदा ।। ८८ ॥ तस्यै मनोहरं रम्यं सप्तभूमं गृहं ददौ । उपश्रेणिकभूपालस्तद्गुणग्रामरंजितः ॥८६॥ नवोढया तया साकं रेमे रंजितमानसः ।। तद्वक्त्रपंकजेऽसौ भूत्षट्पदोरसचुम्बकः ॥ १० ॥ नेत्रानुलीलया रेजे तस्या भूयो दृढांगकः । चंदनद्रुमवल्लयेव नागोऽनंग समुत्सुकः ॥ ११ ॥ वक्षः स्थलवने तस्या मोहोत्तेन मृगायितं । स्तनद्वंद्व महारम्यं क्रीड़ागिरि विराजते ॥ ६२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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